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________________ २७८ | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका एकत्वप्रत्यभिज्ञान का उदाहरण ऊपर आ चूका है । सादृश्यप्रत्यभिज्ञान, यथा-'इसकी आँखें मृग-सी हैं' यहाँ एक वस्तु प्रत्यक्ष है और दूसरी परोक्ष है। वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान, यथा-घोड़ा हाथी से भिन्न है। इसमें घोड़ा प्रत्यक्ष है, और हाथी परोक्ष है। किसी को पहिचानना भी प्रत्यभिज्ञान है। क्योंकि उसमें उसके पूर्व चिह्नों का स्मरण होता है। कुछ लोग सादृश्य प्रत्यभिज्ञान के बदले 'उपमान' शब्द का प्रयोग करते हैं। परन्तु उपमान में प्रत्यभिज्ञान के सभी भेदों का समावेश नहीं होता। ___ (३) तर्क-एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ अवश्यम्भावो–अर्थात्-- अविनाभावी सम्बन्ध व्याप्ति कहलाता है । उसके आधार पर ज्ञान होना तर्क है । जिसमें साध्य के सद्भाव में साधक (लिंग) हो और साध्य के असद्भाव में साधक न हो, उसका सम्बन्ध अविनाभाव माना जाता है । इसे अन्वयव्यतिरेक भी कहते हैं। जहाँ अग्नि (साध्य) होती है, वहाँ धुआ (साधक) होता है। ऐसा विकल्प होना अन्वयव्याप्ति है, और जहाँ अग्नि (साध्य) न हो, वहाँ धुआ (साधक) नहीं होता, ऐसा विकल्प होना व्यतिरेक व्याप्ति है। जैसे-रसोईघर में अग्नि देखी, साथ ही उसमें से धुंआ निकलता देखा, यह अन्वय व्याप्ति है । फिर तालाब में अग्नि न होने से धुआ न देखा यह व्यतिरेक व्याप्ति है। वहाँ से पुनः रसोईघर में आने पर अग्नि में से धुआ निकलता देखा। उससे निश्चय हुआ कि अग्नि कारण है, और धूम्र कार्य है। इस प्रकार का उपलम्भानुपलम्भ-सम्बन्धी सर्वोपसंहार करने वाला विचार तर्क की कोटि में आता है। इन सबको पृष्ठभूमि में 'जब-जब जहाँजहाँ धुआ हो, वहाँ-वहाँ तब-तब अग्नि अवश्य होती है, उसी का नाम तर्क या ऊह है। (४) अनुमान-साधन द्वारा साध्य का जो ज्ञान होता है, यह अनुमान है। इसके दो भेद है-स्वार्थ और परार्थ ।' अपनी ही समझ के लिए हृदय में साधन और व्याप्ति के स्मरण द्वारा जो अनुमान किया जाता है, वह स्वार्थानुमान और अन्य को समझाने के लिए अनुमानप्रयोग प्रस्तुत करके १ (क) साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् । -प्रमाणमीमांसा १।२७ (ख) अमानं द्वि प्रकारं स्वार्थ परार्थञ्च । -प्रमाणनयतत्त्वालोक ६६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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