________________
धर्म के विविध स्वरूप
( दसविध धर्म )
तीसरा आराध्य तत्त्व धर्म है । देव और गुरु को, देव एवं गुरु की योग्यता प्राप्त कराने वाला तत्त्व धर्म ही है । धर्म की ही पूर्ण आराधना से वीतराग, केवली, अरिहन्त, तीर्थंकर एवं सिद्ध बनते हैं तथा धर्म की ही साधना से आचार्य, उपाध्याय और साधु बनते हैं । इसलिए धर्म केवल साधुओं के लिए ही नहीं, समस्त प्राणियों, विशेषतः सब मनुष्यों के लिए अनिवार्य रूप से आराध्य है, साध्य है, सर्वतोभावेन उपादेय है ।
धर्म का अर्थ
आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्म का अर्थ इस प्रकार किया है - जो दुर्गति में पड़ते हुए आत्मा को धारण करके रखता है, नीचे नहीं गिरने देता, ऊपर ही उठाए रखता है, वह धर्म है ।' उपाध्याय यशोविजयजी ने इसी से मिलताजुलता धर्म का अर्थ किया है— 'धर्म उसे कहते हैं, जो भवसागर (संसारसमुद्र ) में डूबते हुए जीव को धारण करके रखता है, पकड़ लेता है, बचा लेता है । इसके दो फलितार्थ ये होते हैं - ( १ ) जिस वृत्ति प्रवृत्ति से जीव ऊपर उठे, नीचे दुर्गति में न गिरे; और ( २ ) जिस वृत्ति प्रवृत्ति से प्राणी संसारसागर में डूबने से बचे तथा उसकी मोक्ष प्राप्ति सम्बन्धी योग्यता बढ़े, वह धर्म है ।
अर्थ-सम्बन्धी भ्रम
धम के इस आशय से या फलितार्थ से अनभिज्ञ कई व्यक्ति 'धृञ् धारणे' धातु ) के धारण अर्थ को लेकर यह मानते हैं कि जिसने जिस वस्तु को धारण किया है वही उसका 'धर्म' है; किन्तु यह उनका निरा भ्रम है । ऐसे भ्रान्त लोगों के मतानुसार तो 'अधर्म' नाम की कोई चीज है ही नहीं । क्योंकि उनकी इस भ्रान्त मान्यता के अनुसार तो धर्म के पेट में सभी पापी, अधर्मी लोगों के कार्यों का भी समावेश हो जाता है ।
- दशवं ० हारि. वृत्ति अ. १ - धर्मपरीक्षा
(क) दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः । (ख) 'सो धम्मो जो जीवं धारेइ भवण्णवे निवडमाणं ।'