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क्षुद्र से विराट् बनो! २७६ राजा ने उसे कहा-'जो कुछ तुमने मांगा, वह मुझे मंजूर है।'
राजा ने उसकी मांगें पूरी करके उसे अलग कर दिया। राजा अब पूर्ववत् पुत्ररहित हो गया।
बन्धुओ ! यह कहानी यह बताती है कि उस लड़के के सामने राजा ने कितनी हो बार विशाल मनोरथ को दुहराया था, फिर भी उसने दरबारियों के बहकावे में आकर राजा के प्रति अविश्वास करके अपनी जिंदगी का लक्ष्य अत्यन्त छोटा बना लिया। इसी प्रकार उच्च साधक के समक्ष भी भगवान् द्वारा प्रतिपादित वचन है कि “साधक ! मोक्ष का राज्य तुम्हें प्राप्त होगा, अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय का मोक्ष का राज्यकोष तुम्हारे अधिकार में होगा और मुक्तिकन्या तुम्हारा अवश्य वरण कर लेगी।" परन्तु यदि साधक भगवान् के उक्त कथन पर अविश्वास करके अपने तप-संयम की साधना के फलस्वरूप स्वर्ग तथा उसके कामभोगों का निदान कर ले-स्वर्ग की तुच्छ कामना कर ले, अथवा पुनः गृहस्थाश्रम में जाकर इहलौकिक सुखभोगों की लिप्सा करले तो अपने विराट निरवद्य लक्ष्य को अत्यन्त क्षुद्र और सावध बना लेता है । दु:खों से सर्वथा मुक्ति के विशाल लक्ष्य को छोड़कर जब साधक स्वर्ग के या इहलोक के वैषयिक सुखों के प्रलोभनवश अपने लक्ष्य को शुद्र बना लेता है तो उसका जीवन 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' हो जाता है। उसे वैषयिक सुख मिलने पर भी मन की अशान्ति, बेचैनी, चिन्ता संकट आदि दुख घेरे रहते हैं। ___फिर साधु ने जब दीक्षा ली थी, तब सावध को छोड़कर निरवद्य स्थिति प्राप्त करने का लक्ष्य बनाया था, किन्तु जब लक्ष्यभ्रष्ट होकर लक्ष्य से अत्यन्त पीछे हट जाता है तो वह निरवद्य सकल्प को छोड़कर पुनः सावद्यस्थिति की और लौट जाता है, स्वर्ग और मनुष्य लोक की रंगीन कल्पनाओं के पंख लगाकर ऊपर उड़ना चाहता है, परन्तु वह ऊपर उड़ना नहीं है, नीचे की ओर गिरना है, उत्थान से पतन की ओर आना है।
. अतः प्रत्येक साधक को विराट् लक्ष्य रखकर ही सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय की निरवद्य साधना करनी चाहिए।