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________________ २७८ अमरदीप दरबारियों ने सोचा कि तीर ठीक निशाने पर लगा है। अतः अब इसे राजा से विमुख करने का अच्छा मौका है । अतः उन्होंने कहा-'हम तो आपके हितैषी बनकर आए हैं। माने, न मामें, आपकी इच्छा है। हमें इससे कोई हानि-लाभ नहीं होने वाला है । देखिये-राजा जब तक आप पर प्रसन्न हैं, उनसे स्वतंत्ररूप से रहने के लिए एक भवन मांग लें । बीस हजार रुपये मांग लें और किसी दासी-वासी से अपनी शादी कराने का कह दें, ताकि आप निश्चित हो जाएँ।' यद्यपि राजा ने बराबर अपने मनोरथ उस लड़के के सामने दोहराये थे, परन्तु उसके मन में आज राजा के प्रति अविश्वास पैदा हो गया । पता नहीं, राजा कब राज्य देगा, कब सारा राजकोष सौंपेगा, और कब राजकुमारी के साथ मेरी शादी करेगा ? लड़के ने उन दरबारियों की बात. मानते हुए कहा-'ठीक है, मैं राजा से यही मांगूंगा।' दरबारी चले गए। एक दिन तथाकथित राजकुमार मुंह लटकाए उदास-सा होकर राजा के पास पहुंचा। राजा ने पूछा- 'बेटा ! आज क्या बात ? उदास, क्यों हो ? क्या किसी ने तुम्हें कुछ कह दिया ?' राजकूमार-'नहीं, पिताजी ! आपकी और माताजी की मुझ पर कृपा हो, फिर मुझे कौन कुछ कह सकता है ? किन्तु मैं अब तक आपके आश्रित जीता था, अव मैं स्वतंत्र रूप से जीना चाहता हूँ, ताकि अपना भाग्य अजमा सकू ।' राजा-'बोलो, क्या चाहते हो?' राजकुमार—'मुझे एक छोटा-सा मकान मिल जाए, जिसमें मैं स्वतंत्र रूप से रह सकू । दस-बीस हजार रुपये मिल जाए, जिससे मैं जीवननिर्वाह कर सकू या कोई आजीविका का साधन कर सक। और किसी दासी-वासी के साथ मेरी शादी करा दीजिए, ताकि मैं अकेलेपन से छुटकारा पाकर निश्चितता से गृहस्थाश्रम चल सकू।' यह सुनते ही राजा का माथा ठनका। सोचा-यह मांगता है छोटासा मकान, मैं तो इसे सारा राज्य देने का मनोरथ कर चुका था, यह दसबीस हजार रुपये चाहता है मैं तो इसे सारा राजकोष देना चाहता था, फिर यह किसी दासी के साथ शादी करने को तैयार है, जबकि राजकुमारी के साथ शादी करने का मेरा मनोरथ था । मालूम होता है, यह किसी के बहकावे में आ गया है । इसे मेरे पर विश्वास नहीं रहा । अब यह मेरे काम का नहीं। इसने अपना दायरा छोटा-सा बना लिया है।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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