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________________ ४४ साधना को जीविका का साधन मत बनाओ! धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! भगवान् महावीर ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप की साधना को इहलोक-परलोक की किसी भी कामना, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, यशकीर्ति एव जीविका का साधन बनाने से साफ मना किया है। जो लोग तप आदि साधना का प्रदर्शन करके आजीविका का या मनोज्ञ भोजन-पान-वस्त्रादि पाने का साधन बना देते हैं, वे साधक आत्मनिष्ठा को छोड़कर शरीरनिष्ठ हो जाते हैं। वे बहिर्ड ष्टि होकर केवल वर्तमान सुखसुविधापरायण हो जाते हैं। बहिर्दष्टि देह से ऊपर उठकर देहातीत को देखने नहीं देती, जबकि अन्तदृष्टि आत्मा को बाहर से हटाकर अन्तमुखी बनाती है। वह आत्मा के यथार्थ विकास, निजगुणरमण, आत्मशुद्धि, स्वभावरमण आदि के अन्तर् में निरीक्षण-परीक्षण की प्रेरणा देती है । वह शरीर के नहीं आत्मा के सौन्दर्य को निरखने के लिए प्रेरित करती है। प्रस्तुत इकचालीसवें अध्ययन में इन्द्रनाग अर्हतर्षि रत्नत्रयसाधना के पीछे बहिदृष्टि साधकों की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए कहते हैं जेसि आजीवतो अप्पा, णराणं बलदंसणं । तवं ते आमिसं किच्चा, जणा सचिणते जण ॥१॥ विकीतं तेसि सुकडं तु, तं च णिस्साए जीवियं । कम्मचेट्ठा अजाता वा, जाणिज्जा ममका सढा ॥२॥ अर्थात- जो आत्मा (साधक) अपनी आजीविका के लिए अपनी तप आदि शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं । वे अपने तप को दूषित करके मनुष्यों की भीड़ इकट्ठी करते हैं ॥१॥ ___ उन (कामना सहित तप करने वालों) का सुकृत मानो बिका हुआ होता है । उस सुकृत पर आधारित उनका जीवन भी मानो बिक जाता है।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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