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________________ २६४ अमरदीप इच्छंतं नेच्छति इच्छा, अणिच्छतं पि इच्छति । तम्हा इच्छामणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेहती ॥४॥ __ 'इच्छा अपने चाहने वाले को नहीं चाहती, किन्तु वह इच्छारहित को चाहती है। इसलिए इच्छा को अनिच्छा से जीतकर साधक सुख प्राप्त करता है।' इच्छा का यह अनोखा स्वभाव है कि वह उसे नहीं चाहती जो इच्छाओं का गुलाम है । परन्तु मन में जो किसी प्रकार की इच्छा, योजना, कल्पना या लालसा किये बिना कर्मठतापूर्वक कार्य करता है, जिसे धन, यश, पद आदि किसी भी प्रकार की चाह नहीं है, जो समाज-सेवा या देशसेवा के लिए मर-मिटने को तैयार होता है, अर्थात् जिसके मन में निस्पृहता है, इच्छाओं पर जिसने विजय पा ली है, वहीं मुक्ति-सुख प्राप्त . करता है । वही शान्ति पाता है। गीता में भी कहा है विहाय कामान् य सर्वान, पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः, स शान्तिमधिगच्छति ॥ . जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को छोड़कर निस्पृह होकर विचरण करता है, ममता अहंकार से रहित वही व्यक्ति शान्ति पाता है। ____ अन्त में अर्हषि ने अपनी-अपनी योग्यता, क्षमता और भूमिका को देखकर अपनी इच्छाओं का त्याग करने अथवा इच्छाओं के इन्द्रजाल से बचने को प्रेरणा देते हुए कहा है दध्वओ खेतओ कालओ भावओ जहाथामं तहा । बलं जधावीरिय अणिगूहतो आलोएज्जासिति ॥५॥ साधक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अपनी धृति, साहस एवं बल को देखे । अपनी शक्ति को न छिपाता हुआ इच्छात्याग की साधना करे। साधक को अपनी भूमिका और शक्ति के अनुसार इच्छाओं पर संयम रखना उचित है। अपने पास जितनी शक्ति है, तदनुसार परिवार से लेकर विश्व तक अपने कर्तव्य का पालन करने में शक्ति लगानी चाहिए। उसके बीच में यश, धन, सम्मान, साधन, सुख-सुविधा आदि की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। बन्धुओ ! इन स्वर्णसूत्रों को हृदय में अंकित करके निरर्थक इच्छाओं के इन्द्रजाल से बचें और सम्यक् इच्छाएँ ही करें।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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