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________________ २६० अमरदीप प्राचीन संस्कृत नाटक 'मर्म-मंजरी' में 'भद्रायू' नामक एक विदूषक का आख्यान है। एक बार भद्रायु जंगल में रास्ता भूल जाने से भटक गया। रात हो गई। वह घबराया। अतः एक पेड़ पर चढ़कर वह बैठ गयो । अचानक उस पेड़ के नीचे एक बाघ आ गया। बाघ को देखते ही 'भद्रायु' मौत के भय से कांपने लगा। इसी में उसके हाथ से डाली छट गई । वह सीधा बांध पर जा गिरा। बाघ तो मानो बिजली गिरी हो, इस प्रकार भौंचक्का होकर छलांगें मारता हुआ जंगल की ओर भागा। भद्रायु उसकी पीठ पर एकदम चिपक गया। उसने घबरा कर बाघ के गले में अपनी बाँह भिड़ा दी। बाघ और घबराकर तेजी से भागने लगा। वनवासी लोग और राजा भद्रायु का साहस देखकर खुश हो गए। उन्होंने कहा-भूदेव ! आज तो आपने कमाल कर दिया ! जंगल के राजा सरीखे बाघ पर सवारी करके इसे दौड़ा-दौड़ा कर थका दिया है आपने ! धन्य है आपको ! अब तो इससे नीचे उत्तरो।" भद्रायु के मुंह से बड़ी मुश्किल से ये शब्द निकले-“पर मैं कैसे नीचे उतरू?" उन प्रेक्षकों को कैसे समझ में आता कि बाघ पर से उतरना कितना कठिन था? क्योंकि यदि वह बाघ पर से उतरता तो बाघ निर्भय होकर उसे तुरन्त खा जाता। अधिकांश लोगों को ऐसा ही मालूम होता है कि वे इच्छाओं के बाघ पर सवार हैं, पर वास्तव में यही उन पर सवार है। सवारी का प्रारम्भ सरल है, पर बाद में वे भद्रायु जैसे बन जाते हैं, जिन्हें इच्छाओं का बाघ छोड़ता नहीं। आज इच्छाएँ अधिकांश मानवों के मन पर शासन करती हैं। इच्छाओं से शासित व्यक्ति अपनी सच्ची स्वतंत्रता को खो बैठता है । यद्यपि बाहर से वह स्वतंत्र दिखाई देता है, किन्तु गहराई में उतर कर देखा जाए तो ज्ञात होगा कि वह इच्छाओं की मजबूत रस्सी से बंधा है और बेड़ियों से बंधे कैदी की तरह वह दुःख पाता है। बहुविध इच्छाओं के इन्द्रजाल में बंधे हुए प्रस्तुत चालीसवें अध्ययन में "दीवायन अर्हतषि' ने इच्छाओं के इन्द्रजाल से बचने का निर्देश देते हुए कहा'इच्छमणिच्छं पुरा करेज्जा'-दीवायणेण अरहता इसिणा बुइत । इच्छा बहुविधा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति । तम्हा इच्छमणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधती ॥१॥
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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