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आत्मनिष्ठ सुख की साधना के मूल मन्त्र २४७
पूर्व स्वयं की शक्ति, उत्साह, कार्यक्षमता, श्रद्धा, आरोग्य, सहायक, क्षेत्र और काल का विचार करके ही किसी कार्य का प्रारम्भ करना चाहिए। अपनी परिस्थिति का अवलोकन करने के पश्चात् ही आगे कदम रखना चाहिए, ताकि आधे मार्ग से ही वापस न लौटना पड़े । विचारपूर्वक कार्य करने से मानसिक सुख शान्ति भी बनी रहेगी। निराशा, चिन्ता आदि नहीं घेरेगी । साथ ही कार्यसिद्धि के लिए योग्य कारण का विचार करना आवश्यक है । साधन अनुचित है तो साध्य गड़बड़ा जायेगा । मोक्षसाध्य की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शनादिसमुचित करण - साधन अपनाने आवश्यक हैं ।
किसकी शरण सुखकर ?
अर्हतर्षि अब शरण ग्रहण के विषय में मार्गदर्शन देते हुए कहते हैंजाणेज्जा सरणं धीरो, ण कोडि देति दुग्गतो ।
ण सीहं दप्पियं छेयं, णेभं भोज्जा हि जंबुओ ||२०||
धीर पुरुष जो शरण दे सकता है, वह अजेय किले से युक्त कोटि ( पर्वत शिखर) भी शरण नहीं दे सकता । दृप्तसिंह कुशल हाथी को मार नहीं सकता और शृगाल उसे खा नहीं सकता ।
यदि कोई व्यक्ति संकटग्रस्त हो, मरणान्त कष्ट या भय उपस्थित हो, उस समय वह धीर पुरुष की शरण ग्रहण करे । धैर्यशील पुरुष ही शरण दे सकते हैं । सर्प यदि पीछा कर रहा है तो शक्तिशाली गरुड़ ही बचा सकता है, किन्तु मेंढक की शरण में जाने से क्या वह बचा सकेगा ? कदापि नहीं । महापुरुष का जीवन विशाल वृक्ष-सम है, वह दुःख की धूप को अपने पर झेलकर शरण में आये हुए को शीतल छाया प्रदान करते हैं । भगवान् महावीर की शरण लेकर ही चमरेन्द्र प्रथम देवलोक तक पहुंच सका । और उसने शक्र ेन्द्र को युद्ध के लिए ललकारा। जब शक्र ेन्द्र वज्रज्वालाएँ छोड़ता हुआ उसके प्राण लेने आया तो भगवान् महावीर की शरण ही उसे बचा की। भगवती सूत्र ( शतक ३) में इस घटना का उल्लेख अंकित है । अतः महापुरुष की शरण ही सुखदायक है ।
मुनि अपने वेश एवं रूप के अनुरूप साधना करे अब अर्हतषि मुनिजीवन की साधना के लिए योग्य मार्गदर्शन देते हुए
कहते हैं
वेस-पच्छा-संबद्ध, संबद्ध वारए सदा ।
णाणा- अरतिपाओग्गं णालं धारेति बुद्धिमं ॥२१॥