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________________ २४४ अमरदीप आत्मनिष्ठ सुख 'की साधना के लिए वन में जाना कोई जरूरी नहीं है । यदि वन में पहुंचकर भी वृत्तियों पर विजय नहीं पाई तो वहाँ भी वासना उभर सकती है । वासना का पिपासु वन में आत्मिक सुख शान्ति नहीं पा सकता । जबकि इन्द्रियविजता साधक महलों या भवनों में रहकर भी केवलज्ञान पा सकता है । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल ज्ञान प्राप्ति के लिए महलों में रहना आवश्यक है । अर्ह तर्षि अध्यात्म दृष्टि से मार्गदर्शन कर रहे हैं कि स्थान का कोई महत्व नहीं है, महत्व है— मोहविजय का । जहाँ रहने से मोहरहित मनःस्थिति हो वहीं रहें, चाहे वह वन हो, आश्रम हो या महल हो । जैनदर्शन कहता है - साधक कहीं भी रहे, अपने स्वभाव में स्थित रहे, निज घर में रहे। आज आत्मा परघर ( परभाव ) में भटक रहा है, यही तो साधना की विडम्बना है । कविवर बनारसीदासजी कहते हैं-. हम तो कबहुं न निज घर आए । पर-घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराए । पर पद निज पद मानि मगन ह्व पर परिणति लिपटाए ॥ मोहदशा ही आत्मा की स्वभाव की (स्व) स्थिति में पहुंचने में सबसे बड़ी बाधक शक्ति है, उसी को हटाना है। अतः स्थान नहीं, वृत्तियों को बदलने पर ही आत्मनिष्ठ सुख की प्राप्ति होगी । वन में जाने मात्र से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त हो जायेगी, यह भ्रान्त धारणा है; क्योंकि जंगल में हिमालय जैसी कोई जड़ी-बूटी नहीं, जो मन को विजय दिला सके । उद्विग्न चित्त वाले व्यक्ति के लिए वन का शान्त वातावरण भी शान्ति नहीं दे सकता । मन में शान्तिधारा बह रही है तो मनोहर वन-स्थली उसमें पवित्रता एवं शान्ति का सचार कर सकती है । अन्यथा दूषित मनोवृत्ति वाले को वनस्थली रोक नहीं सकती। रावण वन से ही सीता का अपहरण करके ले गया था । अतः वन में सभी को आत्म-शान्ति मिल जाती तो सभी वन्य पशु शान्ति के दूत होते । इसलिए अर्ह तर्षि कहते हैं कि स्व-भाव से जिसकी आत्मा भावित है, वह चाहे सूने वन में है, जनसाधारण में रहे या स्वर्ण प्रासादों में रहे, सर्वत्र आत्मभाव में लीन हो सकता है, आत्मनिष्ठ सुख पा सकता है । जिसने मन को साध लिया है, उसे भौतिक राग के बंधन बाँध नहीं सकते, वह सबसे अप्रतिबद्ध रहता है। गीता की भाषा में, वह सबमें रहकर भी सबसे
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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