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________________ ३३.० अमरदीप प्रायः दो मिनट में जलकर शान्त हो जाती है. मगर भीतर की आग कब, किस क्षण विस्फोट करेगी, कहा नहीं जा सकता । बाहर के क्रोध को हम उष्ण- युद्ध और भीतर के क्रोध को शीतयुद्ध कह सकते हैं । शीतयुद्ध अधिक भयावह होता है । जैसे- दो व्यक्तियों के बीच झगड़ा हो गया। दोनों ने क्रोधावेश में आकर परस्पर बोलना बंद कर दिया । बाहर से तो क्रोध की ज्वाला शान्त हो गई, ऐसा प्रतीत होता है लेकिन ऐसा नहीं समझना चाहिए। इतना ही हुआ है कि बाहर की ज्वाला भीतर पहुँच गई । साधक को दोनों प्रकार की क्रोधाग्नि को शान्त करके क्रोधजयी बनना चाहिए। तभी वह दूसरों को प्रसन्न और प्रकाशित कर सकता है। वैसे निरुध्यमान रोका या दमन किया हुआ क्रोध मनुष्य को तप्त करता है, और विमुच्यमान बाहर प्रकट किया हुआ क्रोध उसे भस्म करता है, परन्तु दोनों ही प्रकार के ये क्रोध आत्मार्थी साधक के लिए त्याज्य हैं । सतत जाग्रत रहकर उसे क्रोध को जड़मूल से समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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