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क्रोध की अग्नि : क्षमा का जल २२३
प्रतिपक्षी को दुःखी करने का निदान भी क्रोधवश होता है. क्रोध एक प्रकार का मिथ्यात्व भी है । इसलिए क्रोध त्रिशल्यरूप है । क्रोध साधक जीवन की सबसे बड़ी पराजय भी है । जब साधक की आत्मा का सात्त्विक बल समाप्त हो जाता है, तो वह अपनी दुर्बलता को क्रोध के आवरण में छिपाना चाहता है । परन्तु साधक की दुर्बलता और हार स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो जाती है । विश्व की आधे से अधिक समस्या क्रोध ने ही खड़ी है । इसलिए क्रोध, परिवार, समाज, जाति, राष्ट्र और विश्व के लिए महाहानिकार है ।
साधारण अग्नि से भी क्रोधाग्नि बढ़कर afग्न से क्रोध की तुलना करते हुए अर्हतर्षि आगे कहते हैं
वहिणो णो बलं छित्तं कोहग्गिस्स परं बलं । अप्पा गती तु वहिस्स, कोवग्गिस्सामिता गती ॥ ३ ॥ सक्का वहीणिवारेतु वारिणा जलितो बहि । वो दहि जणावि कोवग्गी दुण्णिवारओ || ४ || एकं भवं दहे वही बड्ढस्स वि सुहं भवे । इमं परं च कोवग्गी णिस्संकं दहते भवं ॥ ५ ॥ अग्गिणा तु इहं दड्ढा सतिमिच्छंति माणवा । stefrगणा तु बड्ढाणं दुक्खं संति पुणो विहि ॥ ६ ॥ अर्थात् - अग्नि का बल महान् है, लेकिन क्रोधानि का बल उससे भी अधिक है । अग्नि की गति तो अल्प है, किन्तु क्रोधाग्नि की गति अमर्या1 दित है ||३||
बाहर की जलती हुई आग पानी से बुझाई जा सकती है, लेकिन क्रोध की आग तो सारे समुद्रों के जल से भी नहीं बुझाई जा सकती ॥४॥
अग्नि केवल एक भव को ही जलाती है, और अग्नि से जला हुआ व्यक्ति बाद में ठीक हो जाता है, पर क्रोधाग्नि तो निःशंक होकर लोक और परलोक दोनों को जलाती है ||५||
आग से जलने वाला मानव शान्ति चाहता है, पर क्रोधाग्नि से जले हुए मानव पुनः उस दुःख को निमन्त्रण देते हैं ॥ ६ ॥
इन चार गाथाओं में अतर्षि ने क्रोध की तुलना अग्नि से की है | मानव आग से डरता है । उसे कहा जाय कि आग में हाथ डाल दे, तुझे चक्रवर्ती का पद मिलेगा, तो भी वह उसके लिए तैयार नहीं होगा, क्योंकि वह जानता है कि आग मुझे भस्म कर देगी ।
अतः आग की शक्ति पर जितना विश्वास है, या जितना उससे डर है उतना क्रोध की शक्ति पर विश्वास नहीं है, न ही क्रोधाग्नि का डर है ।