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________________ कषायों के घेरे में जाग्रत आत्मा २१३ क्रोध आदि का उफान आता है, तब तो विवेकबुद्धि लुप्त हो जाती है, किन्तु उनके उतार के समय साधक आत्म-निरीक्षण करे । प्रायः मानव दूसरे की गलती देखता है, अपनी भूल को नहीं ढूँढ़ता । यदि वह क्रोधादि के क्षणों में अपनी भूल का निरीक्षण जारी रखे तो उसके क्रोध आदि का स्थान पश्चात्ताप और वैराग्य ले लेगा । कषायों की उपशान्ति का चौथा उपाय यह भी है कि विषयों से साधक विरत हो । विषयों की प्राप्ति एवं रक्षा में घूमने वाला मन प्रिय पदार्थों की प्राप्ति में बाधक के प्रति क्रोधादि करता है । किन्तु विषयों से विरक्ति हो जायगी, तो उसे क्रोधादि आएँगे ही नहीं । पाँचवा उपाय है - कषायोत्पत्ति में निमित्तों से दूर रहना । यद्यपि पुद्गल जड़ है, उसमें कषायभाव नहीं है, फिर भी वे पदार्थ कषायोत्पत्ति में निमित्त हो सकते हैं, बशर्ते कि आत्मा में कषायभाव हो । अतः साधक कषाय के उन तमाम निमित्तों से बचता रहे । यद्यपि निमित्तों से बचना बाहरी दवा है; अन्तर की औषधि तो आत्मा में कषाय परिणति का क्षय कर देना है । फिर भी जब तक मोहकर्म क्षय नहीं हो जाता, तब तक कषाय के निमित्तों मे बचते रहना आवश्यक है । ग्यारहवीं गाथा में कषायोत्पादन के निमित्तों का निर्देश किया गया है । उदाहरण के तौर पर - शस्त्र हिंसा का बहुत बड़ा साधन है । क्रोध आदि कषाय आया और पास में शस्त्र है, तो वह शीघ्र ही हिंसा के लिए तैयार हो जायगा । परन्तु यदि आवेश के क्षणों में शस्त्र पास में नहीं है तो वह प्राणघात से बच जायेगा । फिर तो उसका क्रोधादि का तूफान शान्त हो जायगा । इसी प्रकार शल्य, विष, यंत्र, मद्य, सर्प और दुर्वचन आदि कषाय के प्रमुख निमित्त हैं । आत्म-शान्ति के गवेषक को इनसे सदा बचते रहना चाहिए । छठा उपाय है – स्वपर भेदविज्ञान का दृढ़ अभ्यास करना । जब तक इस भेद विज्ञान का दृढ़ विश्वास नहीं होगा, तब तक संघर्षों और उनके कारण उत्पन्न होने वाले कषायों का अन्त नहीं आ सकता । क्योंकि 'पर' में 'स्व' की बुद्धि ही संघर्षों की जड़ है । 1 सातवाँ उपाय है - स्वहित और परहित का विवेक । स्वपरहित का अविवेक ही कषायों को भड़काता है । केवल स्वहित को आगे रखकर चलने वाला दूसरों के हितों को कुचलता है, इस प्रकार वह परोक्ष रूप से कषायों की ज्वाला भड़काने का काम करता है। दूसरे का अधिकार छीनकर शान्ति
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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