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________________ २१२ अमरदीप सत्यं सल्लं विसं जंतं मज वालं दुभासण । वज्जेतो तं निमित्तेग, दोसेणण वि लुप्पति ॥११॥ आतं परं च जाणेज्जा सव्वभावेण सम्वधा । आयढं च परळं च, पियं जाण तहेव य ॥१२॥ अर्थात-अतः साधक कषायों के विनाश के लिए सम्यक रूप से सन्मति प्राप्त करे तथा स्व-पर का ज्ञान करके अविषयगोचर वातावरण में रहे ॥६॥ जिन वस्तुओं अथवा व्यक्तियों के निमित्त से महाभयंकर तथा कर्मबन्ध के हेतु क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं, उन समस्त वस्तुओं को सर्वतोभावेन सर्वथा छोड़ दे॥१०॥ शस्त्र, शल्य, विष, यंत्र, मद्य, सर्प और कटुभाषण से दूर रहने वाला व्यक्ति इनके निमित्त से होने (क्रोधादि) दोषों से लिप्त नहीं होता ॥११॥ साधक 'स्व' और 'पर' का सर्वतोभाव मे सर्वथा परिज्ञान करे। साथ ही आत्मार्थ (आत्महित) और परार्थ (परहित) को जाने तथा प्रिय और अप्रिय को भी समझे ॥१२॥ अर्हतर्षि ने इन चार गाथाओं में कषायविजय के उपाय बताये हैं। इनमें सर्वप्रथम उपाय है-कषाय के स्वरूप का परिज्ञान। जब साधक कषाय की विघातक शक्ति का ठीक-ठीक बोध प्राप्त कर लेगा, तभी वह उसके विनाश के लिए प्रवृत्त होगा। वह सोचेगा--कषाय मेरी स्वभाव-परिणति नहीं है । वह मेरे निज आत्म-गुणों का विनाशक है। इतना दृढ़ निश्चय होने के बाद साधक कषायरूप विभाव-परिणति को दूर कर सकता है। दूसरा उपाय है- स्व-पर भेदविज्ञान । किसी वस्तु को पाने और उसके संरक्षण के लिए मनुष्य क्रोधादि करता है। उसके लिए दो प्रकार का चिंतन आवश्यक है-(१) जिस वस्तु को पाने के लिए मैं क्रोधादि कर रहा हूँ, वह स्वद्रव्य है या परद्रव्य ? यह निश्चित है कि आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुएँ परद्रव्य हैं, फिर पर के लिए इतना आक्रोशादि क्यों ? दूसरी बात है-क्रोधादि के द्वारा हम किसी वस्तु की सुरक्षा कर सकें, यह भी असम्भव है, क्योंकि वस्तु स्वयं विनाशधर्मी है। अशाश्वत को शाश्वत बना देने की शक्ति किसमें है ? अतः इस प्रकार स्व-पर का भेदविज्ञान साधक को कषायविजय में बहुत सहायक होगा। तीसरा उपाय है-स्वपर भेदविज्ञान के साथ आत्म-निरीक्षण करना।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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