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कषायों के घेरे में जाग्रत आत्मा २०६
जाने पर तो एक भव बिगड़ता है, पर भवपरम्परा ही बिगड़ जाती
मैं मानता हूं कि बाण से बींधे किन्तु क्रोधरूपी बाण से बींधे जाने है ॥२॥
अज्ञानी आत्मा की दृष्टि केवल वर्तमान तक ही सीमित रहती है, वह दूरदर्शी नहीं होता । इसलिए उसके वर्तमान सुख में जरा-सी कमी आते ही या स्वार्थ को ठेस पहुँचते ही उसका क्रोध उबल पड़ता है । जब क्रोध की आंधी आती है तो विवेक का दीपक बुझ जाता है । क्रोध का राक्षस जब प्रवेश करता है, तो विवेक देवता वहाँ उठकर चला जाता है । क्रोध के प्रारम्भ में मूर्खता है और अन्त में पश्चात्ताप |
क्रोधी मानव क्रोधरूपो बाण से दूसरों को तो कदाचित् न बींध सके, पर स्वयं को तो बींध ही लेता है । यदि कोई मनुष्य बाण से बिंधता है तो उसका एक भव बिगड़ता है, क्योंकि वह केवल शरीर को लगता है, शरीर धराशायी हो जाता है और एक जीवन की यात्रा समाप्त हो जाती है । लेकिन क्रोध रूपी बाण तो हजारों भवों को बिगाड़ डालता है । यह क्रोध का ही परिणाम था कि गोशालक ने भगवान् महावीर जैसे पवित्र श्रमण पर तेजोलेश्या फेंककर अपनी भवपरम्परा बढ़ाई। विश्व के महायुद्ध और उनमें होने वाले नरसंहार का इतिहास भी क्रोध की कलम से लिखा गया है । विपाकसूत्र की कथाएँ भी कषाय के कटु परिणामों के स्पष्ट चित्र बता रही हैं । अत: क्रोध पर विजय पाने के लिए क्रोधविजेताओं का - अर्जुनमुनि, गज सुकुमाल मुनि आदि क्षमा के देवताओं को याद करना चाहिए । क्रोध की उपशान्ति के लिए क्रोध के कारण और दुष्परिणाम पर विचार करना भो आवश्यक है ।
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मानविजय क्यों और कैसे ?
अब मानविजय के विषय में अर्हतषि कहते हैं
अण्णाण विमूढप्पा पच्चुप्पण्णाभिधारए ।
माणं किच्चा महाबाणं, अप्पा बिधइ अप्पकं || ३ ||
मण्णे बाणेण विद्ध े तु भवमेकं विणिज्जति । माणबाणे विद्ध े तु णिज्जती भवसंतति ॥ ४ ॥
अज्ञान से घिरा हुआ मूढ आत्मा केवल वर्तमान को ही पकड़कर रखता है । मान को महाबाण बनाकर आत्मा अपने आपको बींध लेता है ॥३॥
arr से बींधा हुआ व्यक्ति एक ही भव को नष्ट करता है, किन्तु