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अमरदीप
से स्वयं को प्रमुदित (आनन्दित) रखे । अज्ञजनों द्वारा किये गये द्वेषयुक्त प्रयत्न भी उसके लिए हितकर होते हैं ॥१॥
साधक का अप्रतिज्ञभाव से कोई भी उत्तर नहीं होता। साधक स्वयं किसी से द्वेष नहीं करता। जो अप्रतिज्ञ (प्रतिशोध की भावना से मुक्त) होता है, वही यथार्थ ब्राह्मण होता है ॥२॥
ऋषिगिरि एक ब्राह्मण परिव्राजक हैं, वे अर्हतभाव में लीन ऋषि हैं। वे साधक को लक्ष्य करके कह रहे हैं-यदि तेरे भीतर आनन्द का स्रोत बह रहा है तो दुनिया का हर कण तुझे आनन्दित करेगा। अज्ञानियों के द्वष भरे विरोध क्या तेरी आन्तरिक शान्तिधारा को लुप्त कर सकेगे ? क्या वे तेरे भीतर द्वेषाग्नि प्रज्वलित कर सकेंगे? यदि हाँ तो तेरे भीतर अपना तो कुछ नहीं रहा । क्या तेरी शान्ति का तू नियामक नहीं रहा ? वास्तव में, तेरी शान्ति का स्रोत तेरे भीतर ही है । एक अंग्रेज विचारक ने कहा था
'If you can rest yourself in this ocean of peace,
all the usual noises of the world can hardly affect you. __ "यदि तुम अपने भीतर की शान्ति के महासागर में विश्राम कर सकोगे तो दुनिया के तमाम शोर तुम पर मुश्किल से ही असर डाल सकेंगे।"
यदि तुम्हारे भीतर शान्ति का महासागर ठाठे मार रहा है, तो तुम्हें अज्ञानियों के द्वषजन्य प्रयत्न भी उसी प्रकार आनन्द देने वाले होंगे, जिस प्रकार माता को बालक के कार्य आनन्द देते हैं । साथ ही उन विरोध-प्रयत्नों के सह लेने से तुम्हारा तेज भी कम न हो सकेगा। गोशालक ने भगवान् महावीर की अवमानना के लिए जितने भी प्रयत्न किये, सभी भ० महावीर के जीवन को अधिकाधिक उज्ज्वल बनाते गए। विचारकों के लिए विरोध तो विनोद है। विरोध के बिना व्यक्ति चमक नहीं सकता। आवश्यकता है, उस विरोध को समभाव से सह लेने की। जिसने विरोध को समभाव से, शान्ति से सहने की कला सीख ली है, वह जीवन के मैदान में विजय प्राप्त करके ही लौटता है।
वास्तव में कठिनाई और विरोध वह देशी मिट्टी है, जिसमें मनुष्य के पौरुष और आत्मविश्वास का पौधा पनपता है। आगे अर्हतषि ने साधक को विरोध के समय शान्ति से अपने आप में टिके रहते की सलाह देते हुए कहा है-साधक अप्रतिज्ञात भाव में रहे। इसका आशय यह है, जो लोग उसका विरोध, तिरस्कार, खण्डन या उस पर प्रहार करते हैं, उनके प्रति मन में