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पहचान : बाल और पण्डित की १६१ रहेगा परन्तु यह निश्चित समझ लो कि धन मानव के लिए छाया के समान चंचल है । किस क्षण उसके पुण्यरूपी सूर्य पर अशुभोदय बादल आ जाएँगे, कहा नहीं जा सकता। अशुभोदय के बादल आते ही सम्पत्ति की छाया सर्वप्रथम साथ छोड़ देगी। उलटे उससे हुए कर्मबन्ध से मनुष्य को यहाँ और आगे भी दुःख भोगना पड़ेगा। यह एक मिथ्या धारणा है कि सम्पत्ति के द्वारा हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं ।
Money will not buy everything.
पैसा प्रत्येक चीज नहीं खरीद सकता। पैसे से आप फाउण्टेम पैन खरीद सकते हैं, लेकिन लैखमकला नहीं मिल सकती, पैसे से रोटी खरीदी जा सकती है, लेकिन दया, करुणा, सहानुभूति, भूखे को कुछ देने की भावना नहीं खरीदी जा सकती। पैसा आपको चश्मा दे सकता है, परन्तु अनेकान्त दृष्टि या दिव्यदृष्टि पैसे से नहीं मिल सकती। यह भौतिक सम्पत्ति ढलते सूर्य को छाया-सो सीमित और क्षणिक है । आपको अगर कोई सारी सम्पत्ति दे दे तो उसने नाशवान् वस्तु ही दी न ? वह भी आपका पुण्य प्रबल होगा तो टिकेगी। भले ही वह दुनिया की नजरों में वह दानी प्रतीत होगा, मगर तत्त्वज्ञानी की दृष्टि में उसने नाशवान् तथा दुगुणप्रेरक वस्तु ही दी न ? दूसरी ओर एक विचारक साधु या कल्याण मित्र तुम्हें शाश्वत सद्धर्म-वचन या सुन्दर विचार देता है, जिससे तुम्हारा इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाता है, तुम्हारा आचार-विचार पवित्र हो जाता है, तुम्हारी आत्मा मोक्ष मार्ग की दिशा में प्रयाण करती है, तो वह विश्व की शाश्वत महा सम्पत्ति तुम्हें देता है। तुम भी किसी को दो तो ऐसी शाश्वत सर्वश्रेष्ठ विचार सम्पत्ति दो, सद्धर्म वचन दो, जिससे उसका जीवन कल्याणमय हो।
दूसरी ओर सद्धर्मरूपी जल से अपने जीवन को सींचो। मानव जीवन में हृदय वह भूमि है, जहाँ पुण्य की लता सींची जाने से फैलती रहती है। सद्धर्मरूप जल देने से हृदय शुद्धि होती है और पुण्यलता मजबूत होती है ।
साधना के क्षेत्र में आँख न हो तो काम चल सकता है, क्योंकि आँख के अभाव में भी साधक साधना कर सकता है। इसी प्रकार जीभ के बिना भी काम चल सकता हैं; मौन रहकर भी मानव साधना कर सकता है । वहाँ हाथ और पैर की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि लूले-लंगड़े व्यक्ति भी साधना कर सकते हैं । किन्तु सर्वाधिक आवश्यकता है-हृदय की । वह भी शुद्ध पवित्र हृदय की। पवित्र हृदय ही रत्नत्रय की साधना में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हृदय की पवित्रता समस्त पवित्रताओं में श्रेष्ठ है