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पहचान : बाल और पण्डित की १८३
रूप से सोने का शासन स्वीकार लेते हैं, जो सर्वथा अनुचित है ।
व्यक्ति की अच्छाई का मापदण्ड पैसा, सत्ता, पद या बल नहीं, किन्तु उसकी मधुर और दूसरों के घाव भरने वाली वाणी है तथा उसके दानधर्मादि अच्छे कार्य हैं ।
वाणी मन की प्रतिच्छाया है । जीभ के द्वारा जब कटुशब्द निकलें तो समझ लेना कि उसके भीतर कटुता भरी है, और मधुर शब्द निकलें तो हृदय में सरसता भरी है । जैसे किसी शीशी में इत्र भरा है या गटर का पानी इसका निर्णय उसके मुँह का ढक्कन खोलते ही हो जाता है । इसी प्रकार व्यक्ति के भी मुँह का ढक्कन खुलते ही पता लग जाता है कि वह विद्वान् है या मूर्ख है ? ऐसी मजाक भी न करे तथा व्यंग के बाण भी नहीं छोड़े क्योंकि इनसे मत्री समाप्त हो जाती है । विनोद में भी असभ्य भाषा और आप-जनक भाषा से बचना चाहिए क्योंकि किसी भी मनुष्य पर किये गई शाब्दिक घाव को भरना तलवार के घाव से भी अधिक कठिन होता है ।
अतः वाणी का माधुर्य, विवेकदृष्टि, कार्य का सौन्दर्य, ये तीनों ही प्राज्ञ मनुष्य की निशानी हैं ।
अर्हतषि दोनों के परिणामों का उल्लेख करते हुए कहते हैं
दुभासियाए भासाए, दुक्कडेण य कम्मुणा । जोगक्खेमं वहतं तु उसु वायो
व
सिंचति ॥ ३ ॥
सुभासियाए मासाए सुकडेण य कम्मुणा । पज्जपणे कालवासी वा, जसं तु अभिगच्छति ॥ ४ ॥
दुर्भाषित ( खराब) वाणी और बुरे कार्यों के द्वारा जो योगक्षेम का वहन करता है, वह मानो ईख को वायु से सींचता है || ३ ||
सुभाषित वाणी और सुन्दर कृत्यों के द्वारा मानव समय पर आए हुए मेघराज की तरह सर्वत्र यश प्राप्त करता है ॥४ ॥
मधुर वाणी में शक्ति और सुन्दर आचरण में पवित्रता रहती है, परन्तु जिसके पास दोनों का अभाव है, वह मन का दरिद्र है । उसके पास योग और क्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त का रक्षण ) दोनों ही नहीं आ सकते । असभ्य वाणी और बुरे कार्यों के द्वारा जो व्यक्ति योगक्ष ेम चाहता है, उसका कार्य हवा से ईख के सिंचन -का-सा निष्फल है ।
जिसकी वाणी में अमृत बरसता है, तथा जिसके जीवन में सदाचार