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अमरदीप
ख्याल न रखने वाला अपने शरीर और मन दोनों को हानि पहुंचाता है। एक कहावत प्रसिद्ध है -
जैसा खावे अन्न, वैसा रहे मन ।
जैसा पीये पानी, वैसी बोले वानी।। आप समझ गये होंगे कि अन्न और जल शुद्ध हो तो मन और वचन भी शुद्ध रहते हैं। ये दोनों अशुद्ध हों तो मन और वचन भी अशुद्ध और विकृत हो जाते हैं। परन्तु मनुष्य अपनी जीभ पर पहरा देना भूल जाता है। कबीर जी ने जिह्वा की भर्त्सना करते हुए कहा है-..
खटटा मीठा चरपरा, जिहा सब रस लेय।
चोरों कुतिया मिल गई, पहरा किसका देय ॥ भावार्थ स्पष्ट है । आप समझ गये होंगे कि रसेन्द्रिय के वशीभूत होने से कितना अनर्थ होता है ? |
स्पर्शेन्द्रिय-विजय का मार्गदर्शन पाँचवीं इन्द्रिय है-स्पर्शेन्द्रिय । त्वचा के द्वारा वस्तु का स्पर्श करते ही कोमलता या कठोरता, चिकनेपन या खुरदरेपन, ठण्डे या गर्म, हल्के या भारी का ज्ञान हो जाता है। जो व्यक्ति स्पर्शेन्द्रिय के वश में हो जाता है, वह विलासी, सुकुमाल, सुखशील हो जाता है। ऐसे व्यक्ति कठोर शय्या पर नहीं सो सकते, उन्हें कोमल एवं गुदगुदी शय्या चाहिए। ऐसे व्यक्ति मोटा या खुरदरा वस्त्र पहन या ओढ़ नहीं सकते। साधक को मनोज्ञ या अमनोज्ञ स्पर्श हो, उस समय मनःस्थिति कंसी रखनी चाहिए.? इस सम्बन्ध में अर्हतर्षि मार्गदर्शन देते हैं
फासं तयमुवादाय मणुष्णं वा वि पावगं । मणुण्णंमि ण रज्जेज्जा, ण पदुस्सेज्जा हि पावए ॥११॥ मणुण्णंम्मि अरजंते, अदुढे इयरम्मि य।
असुते अविरोधीणं, एवं सोए पिहिज्जति ॥१२॥ अर्थात्-त्वचा के द्वारा मनोज्ञ (कोमल) या अमनोज्ञ (कठोर) स्पर्श का ग्रहण होता है । साधक मनोज्ञ स्पर्श पर अनुरक्त न हो, और अमनोज्ञ स्पर्श पर दोष न करे। इस प्रकार मनोज्ञ स्पर्श पर राग और अमनोज्ञ स्पर्श पर द्वेष न रखता हुआ साधक अविरोधी स्पर्श में सदैव जागृत रहे । यों वह कर्म-स्रोत को रोक सकता है।
निष्कर्ष यह है कि साधक को मनोज्ञ स्पर्श में आसक्त नहीं होना