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________________ १३६ अमरदीप एक दिन इतने विद्र प होकर सामने आते हैं कि क्र रता भी शर्मा जाती है। आशीविष सर्प दूर से देखते ही अपनो फुफकार से हो जीव को वहीं खत्म कर देता है, किन्तु कामरूपी सर्प उससे भी भयकर है, यह हजारों-लाखों कोस दूर बैठे कामपीड़ित को विषाक्त बनाकर मार डालता है । कामविकार के आवेग वस्तुतः उन पागल कुत्तों की तरह हैं, जो स्वयं को पालने वाले को ही काट खाते हैं, इसलिए कामरूपी पागल कुत्तों को न पालना ही श्रेयस्कर है। कामाणं मग्गणं दुक्खं, तित्ती कामेण दुल्लभा । विज्जुज्जोगो परं दुक्खं, तण्हक्खय पर सुहं ॥६॥ कामभोगाभिभूतप्पा, विच्छिण्णा वि णराहिवा। फोति कित्ति इमं भोच्चा, दोग्गतिं विवसागया ॥१०॥ काममोहितचित्तेणं विहाराहारकखिणा। दुग्गमे भयसंसारे, परीतं केसभागिणा ॥११॥ असम्भावं पवत्तेति, दीणं भासंति वीरुवं । । कामगहाभिभूतप्पा, जीवितं पहयंति य ॥१५॥ हिंसादाणं पव्वत्तेति, कामतो केति माणवा । वित्तं गाणं स विण्णाणं, केइणति हि संखयं ॥१६॥ सदेवोरग-गंधर्व, सतिरिक्खं समाण सं। काम-पंजर-सांबद्ध, किरसते विविहं जगे ॥१७॥ जे गिद्ध कामभोगेसु, पावाइ कुरुते नरे। से' संसरंति संसार, चउरतं महब्भयं ॥१६।। अर्थात्-कामों का अन्वेषण दुःखरूप है। कामों से तृप्ति होनी भी दुर्लभ है। उनसे वियोग के क्षण तो और अधिक दुःखदायक हैं । अतः सच्चा सुख तो (काम) तृष्णा के क्षय करने में ही है ।।९। ___ काम भोग से अभिभूत सम्राट् एक दिन इस सम्पूर्ण पृथ्वी को भोग कर विवश होकर उनसे विच्छिन्न हो गए, और दुर्गति के पथिक बने ॥१०॥ _ जिसका चित्त काम से मोहित हो गया, वह कामाभिनिविष्ट होकर आहार-विहार का आकांक्षी बनता है और इस दुर्गम भयावह संसार में चारों ओर से क्लेश का भागी बनता है ॥११॥ __ कामग्रह से अभिभूत आत्मा असद्भाव की प्रवर्त्तना (प्ररूपणा) करते हैं, दीनता और खुशामद की भाषा बोलते हैं। ऐसे लोग अपना जीवन स्वयं विनष्ट कर देते हैं ॥१५॥
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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