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________________ कामविजय : क्यों और कैसे १३३ उसका मन कामवासना की लहरों से दूषित हो जाएगा और उसकी साधना चौपट हो जाएगी । अथवा जिस साधक के मन में कामवासना की रंगीन तस्वीरें घूम रही हैं, परन्तु सामाजिक बन्धन या दूसरे बन्धन उसे ऐसा करने से रोक रहे हैं, तो मन में उठने वाली कामवासना की ललक भी उस साधक की साधना को दूषित करके उसे दुर्गति का मेहमान बना देगी । अतः कामवासना पर को कायिक संयम ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिए मन और वाणी पर भी संयम होना चाहिए। वह तो कोरा कैदी जीवन है, जो समाज के बन्धन में कैद होने से काम सेवन नहीं कर पाता, परन्तु मन में कामाग्नि भमक रही है । बाहर से शान्त दिखाई देने वाली वह कामाग्नि कभी भी निमित्त मिलते ही भभक सकती है | इसलिए अर्हषि काम की अभिलाषा करने वाले कामलोलुप लोगों के जीवन की दुर्दशा को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं जे लुभंति कामेसु तिविहं हवंति तुच्छ से । अझोववण्णा कामेसु बहवे जीवा किलिस्सन्ति || ३ || पत्थति भावओ कामे, जे जीवा मोहमोहिया । दुगमे भयसंसारे, ते धुवं दुक्खभागिणो ॥ ५ ॥ काम - सल्लमण द्विता जंतवो काममुच्छिया । जरा मरण कांतारे, परियतत्यवक्कमे ॥ ६ ॥ जो काम (कामवासनाओं) में लुब्ध होता है, वह तीनों प्रकार से अर्थात् - मन, वाणी और कर्म से, सत्वहीन हो जाता है । कामभोगों में आसक्त हुए बहुत-से जीव (जीवन में) क्लेश ही पाते हैं ||३|| - जो मोह मोहित जीव भाव से ( मन से ) काम की अभिलाषा (प्रार्थना) करते हैं, वे इस दुर्गम भयावह संसार में अवश्य ही दुःख के भागी होते हैं ॥५॥ काम में आसक्त जीव, जब तक कामरूप शल्य (बाण) को चित्त से नहीं निकाल फेंकते हैं, अथवा जड़मूल से काम को मन से नहीं उखाड़ फेंकते हैं, तब तक वे जरा ( बुढ़ापा) और मृत्यु की अटवी में वक्रतापूर्वक (टे) मेढे रास्तों से) परिभ्रमण करते रहते हैं ||६|| कामवासना सुख की एक ऐसी मृगमरीचिका है, जिसमें दूर से प्रचुर सुख झलकता है, किन्तु ज्यों-ज्यों मानव कामवासना में आसक्त होकर
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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