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अमरदीप
ववगकुसले संछिण्णसोते पेज्जेण दोसेण य विप्यमुक्को । पियमप्पिय सहे अकिचणे य आतट्ठ ण जहेज्ज धम्मजीवी ॥७॥
अर्थात् – 'मंत्र-यंत्र-तंत्रादि की चातुरी से पृथक होकर जिसने भवपरम्परा के स्रोत का छेदन कर दिया, और राग (प्रेम) और द्वेष से विमुक्त है । वह धर्मजीवी महामुनि अकिंचन बनकर प्रिय और अप्रिय को समभाव से सहन करे, तथा आत्मा का अर्थ - लक्ष्य का परित्याग न करे ।'
दुनिया जिसे कुशलता - चातुरी समझती है, ऐसे मन्त्रादि के प्रयोग आत्मसाधना के लिए शूल हैं । इन भौतिक प्रयोगों से आत्मा का कुछ भी कल्याण होने वाला नहीं । अतः सच्चे माने में श्रमण जीवन जीने के लिए. वह स्नेह, मोह, आसक्ति आदि राग के तथा घृणा, ईर्ष्या, वैर-विरोध, क्रोध आदि द्व ेष के प्रसंगों से दूर रहे । जीवन क्षेत्र में अकिंचन होकर आगे बढ़ते हुए साधक को कड़वे-मीठे घूंट मिलें तो साधक उनमें भी उलझ नहीं । किसी भी प्रसंग पर, या कैसी भी परिस्थिति में, भय और प्रलोभन के आंधी-तूफानों में साधक अपने आत्मलक्ष्य को न भूले। जैसे भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन में एक ओर मेघमाली देव का भयंकर उपसर्ग था, तो दूसरी ओर उस कष्ट के निवारण में धरणेन्द्र- पद्मावती की सहायता थी । परन्तु प्रभु ने न तो मेघमाली पर द्व ेष किया और न ही धरणेन्द्र पद्मावती के प्रति राग, मोह या स्नेहबन्धन किया । प्रभु दोनों ही स्थिति में सम रहे। इसी प्रकार प्रत्येक साधक अनुकूल के प्रति स्नेहराग और प्रतिकूल के प्रति द्वेषभाव न करे, सभी स्थितियों में सम रहे । ये ही निःसंगता की साधना के सूत्र हैं ।
बन्धुओ !
तो
आप भी अपनी भूमिका के अनुसार इस प्रकार की साधना करेंगे गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी उच्च आदर्श तक पहुंच सकेंगे ।