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________________ गर्भवास, कामवासना और आहार की समस्या समाधि में लीन हो सकता है । ब्रह्मचर्य की प्रभा से जिसका मुख आलोकित रहता है । ऐसा महान् व्यक्ति ही गर्भवास में आगमन को सदा के लिए रोक कर संसार चक्र को समाप्त करने तथा परमात्मपद को प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है । ६६ उस महान् साधक का आहार-विहार और व्यवहार प्रश्न यह उठता है कि पापकर्मों से सर्वथा विरत ऐसे महान् साधक का आहार, विहार और व्यवहार कैसा होता है ? इसका समाधान योगन्धरायण के आगे के वक्तव्य में मिलता है । उस वक्तव्य का भावार्थ इस प्रकार है -- " ' - भगवन् अम्बड ! वे महान् साधक सूत्रमार्ग का अनुसरण करने वाले, क्षीणकषायी, दान्तेन्द्रिय होते हैं । वे शरीर धारण करने के लिए तथा योग (संयम) की साधना के लिए नवकोटि परिशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं । साथ ही वह आहार एषणा (भिक्षाचरी के समय आहार गवेषणा) के दस दोषों से तथा सोलह प्रकार के उद्गम दोषों एवं सोलह प्रकार के उत्पादना दोषों से रहित होता है । अन्यान्य कुलों में जो परकृत (दूसरों के लिए बनाया हुआ) होता है, उसी निर्दोष पिण्ड (आहार), शय्या, उपधि (उपकरण) की बे गवेषणा करते हैं । (फिर वह आहार परिभोगंषणा के ) अंगार, धूम आदि दोषों से रहित होता है ।" ( - ( इसके अतिरिक्त) समुचित विनयोपचार में कुशल, सुन्दर, मधुर और रभित (स्वर माधुर्य से युक्त ) संभाषण करने वाली, अवसर पर ( समयोचित), उचित गति, हास्य और वचन वाली, सुन्दर स्तन और जंघाओं से सुशोभित और अनुपम रूपशालिनी नारियों को देखकर उनके मन के किसी कोने में भी वासना का उद्भव नहीं होता ।" जो साधक पापकर्मों से रहित एवं कामविजेता होता है, वह शास्त्र में कथित छह कारणों से आहार ग्रहण करता है । उत्तराध्ययन सूत्र (२६।३३) में वे छह कारण इस प्रकार बताये गये हैं वेयण-त्रेयावच्चे इरियट्ठाए या संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छट्ठ पुण धर्मांचिताए । अर्था -- क्षुधा वेदना को शान्त करने के लिए, आचार्य आदि की सेवा (वैयावृत्य) के लिए, ईर्ष्या (चर्या) के लिए, संयम पालन के लिए, प्राण धारण
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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