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अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ६३
निच्चलं कयमारोग्गं थाणं तेल्लोक्क-सवकयं । सवण्णु भग्गाणुगया, जीवा पावंति उत्तमं ॥४०॥
अर्थात् - 'सर्वज्ञमार्ग के अनुगामी जीव त्रैलोक्य सत्कृत ( पूजित ) आरोग्यकृत उस अचल उत्तम स्थान को प्राप्त करते है' ॥ ४० ॥
इसका तात्पर्य यह है कि जो इस अनित्य अशाश्वत और मोहमूढ़ता युक्त कर्माधीन संसार-परम्परा का सर्वथा विच्छेद कर देता है, वह बीतरागता का पथिक बनकर मन की रागद्वेषात्मक दशाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है और एक दिन पूर्ण वीतरागता की स्थिति प्राप्त करके अपनी आत्मा को लक्ष्य स्थान पर पहुंचा देता है। वह सिद्धि-स्थान को प्राप्त कर लेता है, जो तीनों लोकों द्वारा पूज्य, निश्चल और सर्वोत्तम स्थान है ।
बन्धुओ !
मैंने इस लम्बे अध्ययन के प्रवचन में आपके समक्ष संसार का स्वरूप, उसमें आसक्त तथा उससे अनासक्त होने वाले की स्थिति, संसार की अनित्यता, उस अनित्यता के मूल - कर्म, कर्म के मूल - मोह की विविध दशाएँ तथा संसार- परम्परा को तोड़ने में साधक-बाधक तत्वों का सांगोपांग विश्लेषण किया है । आप इस पर मनन- चिन्तन करके संसार-परम्परा से मुक्त होने का पुरुषार्थं करें, यही मेरी मंगलभावना है ।