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६० अमरदीप
मोहमूढ़ व्यक्ति के हृदय में दूसरे मोही व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध आदि की आग जलती रहती है । वह अपना बड़प्पन जताने के लिए दूसरों का उपहास करता रहता है । बहुधा वह मोहग्रस्त व्यक्तियों के साथ ही रहता है, उन्हीं के साथ आमोद-प्रमोद करता है, वह न तो साधुसन्तों का सत्संग पसंद करता है, न ही सत्साहित्य का वाचन करता है । सच है, मोह के संकीर्ण घेरे में, दूषित वायुमण्डल में रहने वाले को वीतरागता के शान्त मुक्त वायुमण्डल में आनन्द नहीं मिलता। जिन संस्कारों में वह पला है, उन्हीं में रहना पसंद करता है । कृपण को उदार व्यक्तियों के साथ रहना पसंद नहीं होता, कृपण कृपण के साथ ही रहना चाहता है । यह लम्बी कहानी है - मोहमूढ़ व्यक्तियों की मनोवृत्ति की ।
कर्म-परम्परा का अन्त कैसे होता है ?
हरिगिरि अर्हतषि संसार का अन्त करने के लिए कर्म - परम्परा के अन्तको अनिवार्य बताकर उसी का रहस्य समझाने के लिए कहते हैं
बंधता निज्जरंता य, कम्मं वारिग्गाह-धडीउ व्व
बज्झए मुच्चए चेव, बद्धो वा रज्जुपासेहि,
कम्मस्स संतइ चित्तं कम्मसंताण- मोक्लाय,
नाऽण्णति देहिणो ।
घडिज्जत निबंधणा ॥ ३६ ॥
जीवो चित्तेण कम्मुणा । ईरियतो पओगसो ||३७||
सम्मं नच्चा जिइन्दिए ।
समाहिमभिसंध ||३८||
अर्थात् - 'देहधारी जीव कर्म वाँधता है और निर्जरा भी करता है, किन्तु केवल इस प्रक्रिया से ही कर्म-परम्परा समाप्त नहीं हो सकती । रेहट की घड़िया ( में से पानी भरने और निकलने) के समान उसका क्रम चलता रहता है' ॥३६॥
'जीव विचित्र कर्मों से बद्ध होता है और मुक्त भी होता है । जैसे रस्सी के पाश में बंधा हुआ प्राणी उसी से प्रेरित दिशा में गति करता है, वैसे ही फिर कर्म से प्रेरित दिशा में जीव गति करता है' ||३७||
'जितेन्द्रिय आत्मा कर्म-संतति की विचित्रता को सम्यक् प्रकार से जाने और फिर कर्मसंतति से मुक्त होने के लिए समाधि को प्राप्त करे ||३८||
प्रत्येक देहधारी प्राणी प्रतिक्षण अनन्त अनन्त नए-नए कर्मों का बन्ध करता है और उसी क्षण अनन्त - अनन्त कर्मपुद्गलों की निर्जरा ( कर्मों का