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________________ अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ८ ६ पाता । मोह-मदिरा में मतवाला बना हुआ जोव केवल वर्तमान के क्षणिक सुख को ही देखता है । उसे ही पूर्ण मान लेता है । वह आत्मा की अनंतअनंत अतीत और अनागत पर्यायों के विषय में विचार ही नहीं कर पाता । वह सघन मोहान्धकार में है । जिसको दृष्टि केवल वर्तमान पर टिकी हुई है, उसे स्वामी विवेकानन्द ने 'नास्तिक' कहा है 'वर्तमान दृष्टिपरो हि नास्तिकः' । ऐसा दुर्बुद्धि जीव पहले तो स्वच्छन्द रूप से बेखटके पाप करता रहता है; किन्तु जब उसके भयंकर दुःखद परिणाम सामने आते हैं तब रोताबिलखता है, पश्चात्ताप करता है । उसका यह कृत्य उसी प्रकार का है, जैसे कोई व्यक्ति पहले तो आवेश में आकर गले में फांसी का फंदा डाल ले, फिर जब दम घुटने लगे, तब छटपटाए, 'बचाओ, बचाओ' की पुकार करे । फिर तो कोई भी शक्ति उस पापात्मा को बचा नहीं सकती । आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है, किन्तु उसका फल भोगने में स्वतन्त्र नहीं है । अमुक कर्म करे या न करे, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है, किन्तु एक बार जो कार्य कर लिया, उसके प्रतिफल से वह छूट नहीं सकता; चाहे वह किसी भी देव-देवी, भगवान् या अल्लाह की कितनी ही मिन्नतें कर ले । उसके आगे खुशामद, रिश्वत या अन्य कोई प्रार्थना नहीं चल सकती । हाँ, भगवान् वीतराग प्रभु के बताये हुए मार्ग पर चलने से उस पापात्मा का उद्धार हो सकता है । कर्मबन्ध से पहले आत्मा स्वतन्त्र है वह अपनी रागद्वेषात्मक परिणति को रोककर उस बंध को तुरन्त लौटा भी सकता है, परन्तु कर्मबन्ध के बाद कर्मशृंखला से बंध कर दुःख का वेदन करता है । भौतिक सुख जल के बुलबुले के समान क्षणिक है, चंचल है । किन्तु मनुष्य मोह का मद्य पीकर बोलता है - 'मेरा सुख स्थायी है, शाश्वत है ।' मगर उसे ज्ञान नहीं है कि पुण्यरूपी सूर्य के ढलते ही सुख की छाया भी ढल जायगी । जिस दिन शुभ कर्म रूप पुण्य सरोवर को अशुभ कर्मों की तेज धूप लगेगी, तब पुण्य-जल सूख जायगा और उस मोहमूढ़ की स्थिति ऐसी होगी जैसी सरोवर के जल के सूख जाने पर तड़फती हुई मछली की होती है । बह मोहवश सोचता है, मुझे सत्ता मिली है, परन्तु आजकल तो मिनिस्ट्री भी पुण्य प्रबल हुआ तो अधिक से अधिक ५ साल की है । उसके बाद चुनाव में हार गए तो फिर साधारण मानव की सी स्थिति है । प्राचीन काल में भी पुण्यक्षय होते ही सत्ता छोड़ देनी पड़ती थी। किन्तु मूढ़ मानव असंख्य वर्षों तक सत्ता से चिपटा रहना चाहता है । वह एक प्रकार से कटे हुए वृक्ष पर चढ़ता है, जिससे वह धड़ाम से जमीन पर आ गिरता है ।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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