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________________ अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ७६ अर्थात्-'जगत् में सर्वत्र सुप्त, मत्त और प्रमत्तों पर एकमात्र निर्दयी अनित्यता निविशेष रूप से प्रहार करती है' ॥८॥ जो देवेन्द्र, दानवेन्द्र और विख्यात नरेन्द्र हैं, वे सब जहाँ तक पुण्यकर्मों का उदय है, वहीं तक जनता की प्रचर प्रीति प्राप्त करते हैं' ॥६॥ _ 'आयु, धन, बल, रूप, सौभाग्य, सरलता, नीरोगता, और प्रियता संसार में विविध रूपों में दिखाई देती है ॥१०॥ देव, नागकुमार, गन्धर्व, तिर्यञ्च और मनुष्यों के सहित समग्र संसार में अनित्यता समान रूप से निर्भय होकर विचरण करती है' ॥१६॥ 'इस अनित्यता को दान, सम्मान, उपचार, साम, भेद, आदि क्रियाएँ तो क्या, तीनों लोक की शक्ति मिलकर भी रोकने में समर्थ नहीं है' ॥१२॥ _ 'उच्च हो या नीच, संसारी साधारण देहधारी हो, या पूजनीय पुरुष हो जागृत हो या प्रमत्त अनित्यता सबको सर्वत्र समाप्त कर डालती है' ॥१३॥ 'मैं इसे इस प्रकार करूंगा, उसके पश्चात या उससे यह हो जाएगा, मनुष्य के मन में जो अनेक प्रकार के सकल्प चलते रहते हैं कराल काल उन्हें स्वीकार नहीं करता' ॥१४।। __ प्राणी कहीं भी जाए, अनित्यता छाया की भाँति सर्वत्र उसके साथ रहती है। छाया कदाचित् पृथक भी दिखाई दे सकती है, परन्तु अनित्यता तो गूढ़ है, वह कभी दिखाई नहीं देती ॥१५॥ __ 'कर्म के सद्भाव में हो जो (अनित्यता) आत्मा के साथ रहती है और अनेक रूपों में दिखाई देती है । शरीरधारियों की प्रकृति को अनित्यता ने अपने में लीन कर रखा है ॥१६॥ अर्हतर्षि हरिगिरि ने अनित्यता का जो इतनी गाथाओं में प्रतिपादन किया है, उसका तात्पर्य यही है कि आत्मा या आत्मगुणों के सिवाय ससार में कोई भी पदार्थ, चाहे वह जड़ हो या चेतन, चाहे वह परभावरूप हो या विभावरूप, आत्मगुणातिरिक्त गुण हो या कर्म हो, सभी पर अनित्यता की छाया है। ___महाकवयित्री महादेवी वर्मा ने सुन्दर शब्दों में इसे अभिव्यक्त किया है विकसता मुझने को फूल, उदय होता छिपने को चन्द । शून्य होने को भरते मेघ, दीप जलता होने को मन्द ॥ यहाँ किसका स्थिर यौवन, अरे ! अस्थिर छोटे जीवन ॥
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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