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अमर दीप
को निकाल देना होगा, अन्यथा उसकी साधना आगे चलकर विकृत, दूषित और भारभूत हो जाएगी, उसकी तेजस्विता समाप्त हो जाएगी। साधना की आत्मा निकल जाएगी, केवल क्रियाकाण्डों के खोखे रह जाएँग।
जिन साधकों के जीवन में तेजस्विता और दीप्ति खत्म हो जाती है, उनके जीवन में केवल शुष्क क्रियाकाण्ड रह जाते हैं। कहा जाता है -बंगाल में बाउलसंत हो गए हैं। उन्होंने अपने पीछे आने वाले साधकों के हाथों में प्रकाशमान मशाल थमा दी और वे चले गए। परन्तु जब वह मशाल बुझने लगी तो साधकों ने उसे प्रज्वलित नहीं की, फलतः वह बुझ गई । वहीं बुझी हुई मशाल वे अपने अनुगामी साधकों के हाथों में थमा गए । अत: उन्होंने उस बुझी हुई मशाल को तो फैंक दी, किन्तु मशाल में लगा हुआ वह डंडा हाथ में पकड़ लिया। आज बाउलसन्त के अनुगामियों के हाथ में शुष्क क्रियाकाण्ड के प्रतीक वे डंडे ही रह गए हैं। साधना की तेजस्वी और प्रकाशमयी जो मशाल थी, वह नहीं रही। __इस रूपक का रहस्य यह है कि साधना की मशाल को तेजस्वी एवं प्रकाशित रखने के लिए अहंता और ममता, माया और कुटिलता, निन्दा और प्रशंसा में असमता, आदि तीन जोड़े वस्तुतः साधक के विकास के लिए भयंकर रोड़े हैं, जब तक इन तीनों के प्रभाव को निर्मूल नहीं किया जाएगा, तब तक साधक आगे नहीं बढ़ पाएगी। न ही उस साधक की साधना में कोई दिलचस्पी रहेगी। वह केवल चारित्ररूपी चन्दन का भार ढोने वाला गधा रह जाएगा। सर्वप्रथम कण्टकयुगल : अहंता-ममता
इन तीनों कण्टक-युगलों में सर्वप्रथम कांटों का जोड़ा है-- अहंताममता । अहंता का परिवार भी बहुत बड़ा है और ममता का भी। ये दोनों युगल परिग्रहरूपी विषवृक्ष की जहरीली बेलें हैं। जब तक इन दोनों को उखाड़ा नहीं जाएगा, तब तक ये साधना की जड़ों को खोखली बनाते रहेंगे । अंगिरस ऋषि कहते हैं
आयाण-रक्खी पुरिसे, परं किंचि ण जाणती।
असाहुकम्मकारी खलु अयं पुरिसे ॥ --आदान-रक्षी (आदान–ग्रहणरूप परिग्रह का रक्षक) मानव दूसरी कोई बात जानता ही नहीं। ऐसा पुरुष वस्तुतः असाधुकर्म (साधना से विपरीत अशुभकर्म) करने वाला है। ... अंगिरस ऋषि ने यहाँ केवल 'परिग्रह' की ओर संकेत किया है ।