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अमरदीप
पवित्रता और सादगी का वातावरण लुप्त हो रहा है। आज के विद्यार्थियों में अशिष्टता, असभ्यता और अविनयवृत्ति दिखाई देती है । ज्ञानस्य फलं विरतिः' 'ज्ञान का फल दुवत्तियों से विरति है' के बजाय दुवृत्तियों में प्रवृत्ति है। कटु शब्दों में कहूँ तो आज का विद्यार्थी ऐसी विद्या पढ़ता है, जिससे चोरी छिपाई जा सके, असत्य को सत्य बनाया जा सके। इस प्रकार का कौटिल्य शास्त्र वह पढ़ता है ।
एक विद्यार्थी से पूछा गया कि तुम्हारी विद्या प्राप्ति का ध्येय क्या है ? तो उसने तपाक से उत्तर दिया- “मेरा ध्येय है वकील बनने का। आजकल कायदे-कानून बहुत बढ़ गये हैं। अगर वकालत न पढ़ें तो इन कायदा-कानूनों के चंगुल से छूटने का उपाय कैसे मिल सकता है ? इस युग में वकीलों के सहारे जीएँ तो हमारी आधी कमाई तो वकील ही खा जाएंगे ? अगर हम स्वयं वकालत सीखे हुए होंगे तो हमें कायदों के फायदे मिलेंगे।"
देखा, आपने ? यह है आज की विद्या, जो रोटी, रोजी, सुरक्षा और शान्ति की नहीं, ठगी और धोखेबाजी सीखने की विद्या रह गई है । वकालत सीखता है --टैक्स चोरी करने के लिए, अर्थशास्त्र सीखता है-अधिकाधिक धन कमाने के लिए, अन्य विद्याएँ सीखता है-अपने शरीर और कुटुम्ब के मौज-शौक के लिए । बताइए, ऐसी विद्याओं से मनुष्य की आत्मा का विकास कैसे होगा, उसका चरित्र ऊँचा कैसे उठेगा ? अविद्यावान विद्यार्थी की मनोवृत्ति
विद्यावान में जीवन की जो तेजस्विता, निर्भयता एवं आत्मनिर्भरता चाहिए, वह आज के विद्यार्थियों में शायद ही देखने को मिलेगी। मुझे एक विद्यार्थी की मनोवृत्ति का उदाहरण याद आ रहा है - वह इण्टर की परीक्षा देकर घर आया हुआ था। उसी अर्से में उसके यहाँ एक मेहमान आये हुए थे, वे तत्त्वचिन्तकं थे। विद्यार्थी के पिताजी ने उसे उक्त तत्वचिन्तक मेहमान से मिलाया और उसके विद्याभ्यास का परिचय दिया । तत्वचिन्तक ने उसकी विद्या-प्राप्ति की थाह लेने की दृष्टि से उसे पूछा-'क्या पढ़ते हो ?'
विद्यार्थी-'सर ! मैं इण्टर की परीक्षा देकर आया हूं।' आगन्गक-'अब क्या करोगे ?' विद्यार्थी-'बी० ए० पास करूंगा ?' आतुन्तुक-'फिर क्या करोगे ?'
विद्यार्थी-'फिर तो फर्स्ट क्लास पास होऊँगा तो विदेश जाकर एम० ए० करूंगा।