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________________ महानता का मूल : इन्द्रियविजय २३१ जिस प्रकार अग्नि आहार और शरीर को यथास्थान जोड़ती है, वैसे ही इन्द्रियाँ बाह्य पदार्थों को आत्मा के साथ जोड़ती हैं और योग को सक्रिय बनाती हैं । बन्धुओ ! जिस प्रकार अग्नि आहार पकाती है, अगर उसे अधिक जलाया जाए तो वह रोटी आदि को जला देगी, अत्यन्त कम जलाया जाए तो रोटी को कच्ची रख देगी अतः मात्रा में प्रज्वलित किया जाए तो वह आहार को ठीक ढंग से पका कर शरीर के लिए उपयोगी बना देती है, अथवा जठराग्नि खाये हुए भोजन का पाचन करके शरीर के विभिन्न अवयवों को शक्ति प्रदान करती है, वैसे ही इन्द्रियाँ और योगत्रय ( मन-वचन-काया) पदार्थों को आत्मा तक पहुंचाते हैं । अतः इन्द्रियों का जहाँ-जहाँ जिस-जिस रूप में संयोजन किया जाए तो वे भी आत्मविकास और आत्मकल्याण में उपयोगी हो सकती हैं, लक्ष्य तक पहुंचा सकती हैं, रत्नत्रय की साधना को शुद्ध रख 'सकती हैं। अतः आप भी इन्द्रियों का यथायोग्य उपयोग करके इन पर नियंत्रण रखकर इन्द्रियजयी बनें, यही महानता का मूल है ।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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