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________________ महानता का मूल : इन्द्रियविजय | २२३ अत्यधिक विलासिता में इन्द्रियों का उपयोग करने वाले व्यक्ति असमय में ही बूढ़े और अशक्त हो जाते हैं और कई तो असमय में ही मौत के मुह में चले जाते हैं या आत्महत्या करके अपने जीवन का नाश करने पर उतारू हो जाते हैं। मैंने एक कहानी पढ़ी थी कि अमेरिका के एक धनाढ्य पुरुष ने अपनी इन्द्रियों से विषय-वासना का पर्याप्त खेल खेला । अपार धन खर्च करके विषय सुख लूटने के लिए हर प्रकार की विलास-सामग्री का खुलकर उपयोग किया। इसका नतीजा यह हुआ कि उसका शरीर जर्जर हो गया । सभी इन्द्रियाँ शिथिल हो गईं। उनकी शक्ति क्षीण हो गई । अतः उसने जिंदगी से ऊबकर आत्महत्या करने का विचार किया। परंतु उसके एक हितैषी मित्र को इस कुविचार का पता लगा। उसने उसे सलाह दी कि तुम मेरे कहने से कुछ अर्से तक जंगल में रहकर प्राकृतिक जीवन बिताओ। व्यायाम और प्राणायाम द्वारा, यौगिक आसनादि द्वारा एवं फलाहारादि द्वारा प्रकृति की ओर लौटो। भगवान की प्रार्थना, कीर्तन एवं गुणगान करो। देखो, तुम्हारा जीवन कितना सुन्दर और कलापूर्ण बन जाता है। उसने इसी प्रकार किया, लगभग ६ महीने में उसका काया पलट हो गया। आध्यात्मिक हानि यह तो हुई इन्द्रियविषयों में अत्यधिक उपभोग से भौतिक हानि की बात । आध्यात्मिक हानि भी कम नहीं है। प्रस्तुत में सोरियायन ऋषि ने इन्द्रियों की विषयों में आसक्ति एवं द्वेष से पापकर्मबंधन का ही संकेत किया है। किंतु दीर्घ दृष्टि से विचार किया जाए तो पापकर्म के फलस्वरूप नरक या तिर्यञ्चगति प्राप्त होती है, क्योंकि विषयों में आसक्त आत्मा सभी पापों में रंग जाता है। विषयों की चाह ही अनेक दु.खों को आमंत्रित करती है। जो जीव बेरोकटोक स्वच्छंद होकर इन्द्रिय-विषयों का सेवन करते हैं, वे इन्द्रियों के वशीभूत होकर उनके अस्तित्व को निरंतर बने रहने की इच्छा करते हैं, उनके अभाव में दु:खी होते हैं, अत्यंत आतुर होकर विषयों में लीन रहते हैं, वे चिकने कर्मों का बध करते हैं, जिनके फलस्रूप अनेक भवों में भ्रमण करना पड़ता है। इसीलिए ज्ञानसार में कहा है विभेषि यदि संसारात् मोक्ष-प्राप्ति च कांक्षसि । तदेन्द्रियजयं कर्तुं स्फोरय स्फार-पौरुषम् ॥ हे साधक ! यदि तू संसार-परिभ्रमण से घबराता है, और मुक्ति की
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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