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महानता का मूल : इन्द्रिय-विजय .
इन्द्रियविजेता ही उत्तमपुरुष धर्मप्रेमी श्रोताजनो !
क्या आप बता सकते हैं कि महान् मानव कौन है ? कई लोग कह देते हैं कि जिसके पास सत्ता है, जिसकी हुकूमत चलती है; अथवा जिसके यहाँ धन का अम्बार लग रहा है, वैभव की झंकार है, या जो रात-दिन रागरंग और भोग-विलास में मस्त रहता है. सुन्दरियों के पायल की झंकार जिसकी अट्टालिकाओं में गूंजती है, वही महान् और उत्तम मनुष्य है। परन्तु अगर आपने भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया होगा तो आप इस बात से सर्वथा इन्कार कर देंगे। भारतीय संस्कृति में भोग की महत्ता को कतई स्वीकार नहीं किया है, यहाँ त्याग की महत्ता सदा-सदा से रही है। यहाँ बड़े-बड़े सत्ताधारी, चक्रवर्ती, विशाल भूमि के अधिपति अथवा धनाधीशों या वैभव और भोग-विलास में रत व्यक्तियों ने त्यागियों के चरणों में मस्तक झुकाया है।
इसी दृष्टि से प्रस्तुत सोलहवें अध्ययन में सोरियायन अर्हतर्षि ने इन्द्रियविजेता को ही उत्तम पुरुष बताते हुए कहा है
जस्स खलु भो विषयायारा ण य परिस्सवंति इंदिया य दवेहिं से खल उत्तमे पुरिसे त्ति सोरियायणेण अरहता इसिणा बुइतं ।
अर्थात्-'जिसके इन्द्रियों का वेग द्रवित (पतली) वस्तु की तरह विषयाचार की ओर नहीं दौड़ता, वही मनुष्य उत्तम है'; इस प्रकार सोरियायन अर्हतर्षि ने कहा।
महर्षि का तात्पर्य यह है कि महान् या उत्तम पुरुष वह नहीं है, जो दुनिया पर तो शासन करता है, किन्तु अपने मन और इन्द्रियों का गुलाम है। शूरवीर वह नहीं है जो संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीत लेता है;