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दुःखदायी सुखों से सावधान | २११
होता है । जैसे वृद्ध सिंह उन्मत्त होकर विवेक खो बैठता है और निर्बल प्राणियों की हिंसा करता है । उसी प्रकार मोहोन्मत्त व्यक्ति गुण-दोष का विवेक भूल जाता है, और दूसरों के घात के लिए उतारू हो जाता है ॥१३॥ विवेकी ज्योति को बुझा देता है । मोह ऐसा मद्य है कि जो इसे पीता है; वह झूठे सुख में - वर्तमानकालिक क्षणिक सुख में पागल हो जाता है, अहंकार से उसका मन उन्मत्त हो जाता है । वह अहंकार के वशीभूत होकर दूसरे को सदैव दुर्बल मानकर उस पर विपत्ति का वज्र प्रहार करता है ।
भोला मानव उस भूखी मछली की तरह है जो आटे की गोली के मोह में पड़कर उसे निगलने में सुख मानती है, पर वह उस कांटे को नहीं देखती, जो भविष्य में उसका सर्वनाश कर देता है । इसी प्रकार मोहप्रेरित आत्मा वर्तमान भोग के सुख में लब्ध होकर अपना सर्वनाश कर लेता है । मधुराज ऋषि आगे यह भी बताते हैं कि वर्तमान सुख में लुब्ध मनुष्य कैसे-कैसे पाप कर लेता है ? फिर फलभोग के समय किस प्रकार दुःख पाता है, और नये-नये पाप कर्म बाँधता है ? देखिये उनके ही शब्दों में -
सवसो पावं पुरो किच्चा, दुःखं वेदेति दुम्मती । आसत्तकंठपावो (सो) वा मुक्कधारो दुहडिओ || १४ ||
पावं जे उपकुब्जति, वड्ढती पावकं तेसि
जीवा साताणुगामिणो । अण्णग्गाहिस्स वा अणं ॥ १५ ॥
अणुबद्धमपस्संता
पच्चु पण्ण- गवेसका ।
ते पच्छा दुक्खमच्छंति, गलुच्छिन्ना झसा जहा ।। १६ ।।
अर्थात् - पूर्वकृत पाप के वशीभूत होकर दुर्बुद्धि आत्मा दुःख का अनु
भव करता है । आकण्ठ पाप में डूबा रहने वाला व्यक्ति कष्टों और विपदाओं की धारा में अपने आपको खुला छोड़ देता है । सुखार्थी जीव सुख के लिए पाप करते हैं, किन्तु जैसे ऋण लेने वाले पर ऋण चढ़ता ही जाता है, वैसे ही उन सुखार्थी जीवों का पाप बढ़ता ही जाता है ।
जो केवल वर्तमान सुख को ही खोजते हैं, किन्तु उससे अनुबद्ध ( दुःखरूप) फल को नहीं देखते, वे बाद में उसी प्रकार दुःख पाते हैं, जिस प्रकार गला बींधी हुई मछली ।
अनादिकाल से सुख के लिए परिश्रम करता है । उस स्वार्थजन्य सुख प्राप्ति के लिए जघन्य से जघन्य कुकृत्य भी करता है । अतः उसकी