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________________ जीवन की सुन्दरता १८७ इनका भावार्थ यह है कि 'विद्यमान वस्तु कभी की नहीं जाती, और असत् वस्तु तो कभी की ही नहीं जाती। अथवा-विद्यमान वस्तु का करण नहीं है. क्योंकि अपने करण के द्वारा ही वह कार्य रूप में आई है, और असत् वस्तु का कोई करण नहीं होता। बहुधा यह भलीभाँति देखा गया है कि भवसांकर्य (संसार-परम्परा) असत् नहीं है, क्योंकि वह सहेतुक है, उसके पीछे कर्म वर्गणा है, जो कि भवपरम्परा का मुख्य हेतु है।। . यह उपस्थित (विद्यमान) कर्म, भवपरम्परा के द्वार के रूप में विद्यमान है। दूसरा तो केवल निमित्त-मात्र है। मेरे शुभाशुभ कर्मफल (विपाक) के लिए तो मेरे पूर्वकृत कर्म ही उत्तरदायी हैं । दार्शनिक क्षेत्र में दो सिद्धान्त प्रचलित हैं। एक है- सत्कार्यवाद और दूसरा है-असत्कार्यवाद । सांख्य, योग और जैनदर्शन सत्कार्यवादी हैं। इनका कहना है कि विश्व में विद्यमान वस्तु ही की जाती है, असत् (अविद्यमान) नहीं । घड़ा मिट्टी के रूप में पहले से ही विद्यमान है तभी कुम्भकार के कुशल हाथ उसे मूर्त रूप देकर घड़ा बनाते हैं । यदि कुम्भकार यह दावा करे कि मैं असत् (मिट्टी की अविद्यमानता) से घड़ा बना हूँ तो, वह दावा व्यर्थ है । यदि वह ऐसा दावा करता है तो आकाश से घड़ा बना दे, परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। दूसरी ओर बौद्ध और वैशेषिक दर्शन असत्कार्यवादी हैं । वे कहते हैं-जिस समय घड़ा बनता है, उस समय यदि वह मिट्टी में उपस्थित है तो दिखाई क्यों नहीं देता ? अतः असत की ही उत्पत्ति होती है। यदि मिट्टी में घड़ा पहले से मौजूद है तो फिर कुम्भकार की या उस घड़े को खरीदने को क्या आवश्यकता है । परन्तु पिछला सिद्धान्त युक्ति से खण्डित हो जाता है । असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती, और स कभी नष्ट नहीं होता । अतः निष्कर्ष यह निकला कि असत् कभी किया नहीं जाता और सत् को भी करने की जरूरत नहीं, क्योंकि वह तो विद्यमान है ही। ‘कृतस्य करणं नास्ति'' इस न्याय से कृत का करना नहीं है। प्रस्तुत सन्दर्भ में अहंतर्षि कहना चाहते हैं कि भवपरम्परा असत् नही है, वह सत् (विद्यमान है ही। साथ ही कर्म भी सत् है। इन दोनों को इस प्रकार समझना है। भवपरम्परा कार्य है, और कर्म उसका कारण है। मनुष्य विपत्ति या संकट आने पर अपने उपादानरूप आत्मा का सौन्दर्य नहीं देखता कि वह विविध कर्मों के कारण कितना विकृत है ? तथा उन्हीं स्वकृत कर्मों के फलस्वरूप आत्मा को अनेक भवों में भटकना पड़ता है। परन्तु अधिकांश भ्रान्त मानव आत्मा के सौन्दर्य को न देखकर केवल शरीर के सौन्दर्य को ही अपना सौन्दर्य मान लेते हैं, जिसके कारण वे शरीर
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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