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लोषणा और वित्तषणा के कुचक्र
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बड़ी दावतों के मूल में भी वाहवाही लूटने की मनोवृत्ति छिपी रहती है। कई व्यक्ति तो अधिक वाहवाही लूटने के लिए अपना घर खाली कर डालते हैं, कर्जदार बन जाते हैं, आवश्यक कार्यों को भलीभाँति चलाने में कठिनाई महसूस होने लगती है । मोटर, घोड़ा-गाड़ी, कोठी, बंगले, नौकर-चाकर आदि का भारी सरंजाम आवश्यकता पूर्ति के लिए नहीं, किन्तु दिखावे और अमीरी के प्रदर्शन के लिए होता है। बड़े आदमी बनने के शौक में इन कामों में बहुत फिजूलखर्ची की जाती है। जो लोग इस प्रकार का छिछोरपन करते हैं, उन्हें यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए, कि यह आडम्बर या प्रदर्शन प्रशंसा का नहीं, निन्दा का कारण बनता जा रहा है। वर्तमान युग के लोग इस उद्धत-प्रदर्शन का विरोध करेंगे, इसे रोकेंगे। इसी दुष्प्रवृत्ति ने सार्वजनिक संस्थाओं का सत्यानाश किया है । पदाधिकारी बनने की हविस में प्रायः सभी जन-संगठन ईर्ष्या और कलह के अखाड़े बने हुए हैं । हर कोई बड़प्पन और पदवी चाहता है, जिसे मिल जाती है. वह फिर उसे सदा के लिए छाती से चिपकाये बैठा, रहना चाहता है। जिसे नहीं मिलती, वह सत्ताप्राप्त व्यक्ति को पदच्युत करने के लिए ही नहीं, संस्था की प्रगति को ठप्प करने पर तुल जाता है। सत्ता हथियाने के लिए कुचक्र करने में अपनी शक्ति खर्च करता है।
ऐसी लोकैषणा से आत्मार्थी गृहस्थ को तथा साधु को कोसों दूर रहना चाहिए।
वित्तषणा को डाइन से भी बचो __मनुष्य प्रचुर धन का स्वामी बनने के तथा ऐश्वर्य का सूखोपभोग करने के सपने देखा करता है। अपने से बड़े और सुखी सम्पन्न स्थिति के लोगों को देखकर वह खिन्न होता है तथा उसकी इच्छा होती है कि मेरे पास भी इतना ही वैभव और ऐश्वर्य हो। इस प्रकार ईर्ष्या और तृष्णा की आग प्रचण्ड वेग से उसके मन में जलने लगती है। यही असन्तोष का कारण बनती है। जिसका मन महत्वाकांक्षाओं की तृष्णा में प्रज्वलित हो रहा है, वह धन, साधन और सुख सामग्री बटोरने में कौन-सा कुकर्म नहीं करता होगा, कहा नहीं जा सकता।
आज धन की मृगमरीचिका के पीछे लोग बेतहाशा दौड़ रहे हैं। क्या गरीबी इसी सीमा तक पहँच गई है कि मनुष्य को निरन्तर धन के लिए उद्विग्न होकर रहना पड़े ? वास्तव में बात ऐसी नहीं है । फिर भी हर व्यक्ति आज धन का प्यासा-सा फिरता है। धन, अधिक धन, और अधिक