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मिथ्या श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा १५१ में फांसी लगाता है, किन्तु फांसी का वह फंदा टूट गया, अतः वह न मर सका, फिर तेतलिपुत्र बड़े-बड़े भारी भरकम पत्थरों को गले में बांध कर अगाध जल वाली पुष्करिणी में अपने-आपको गिराता है, किन्तु उस अथाह (जल) में भी थाह पा ली, मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? तदनन्तर तेतलिपुत्र काष्ठ की विशाल चिता प्रज्वलित कर उसमें कूद पड़ता है, लेकिन वहाँ भी अग्नि की ज्वाला बुझ गई. कौन मेरी इस बात पर विश्वास करेगा ?"
इस प्रकार जब तेतलिपुत्र के द्वारा आत्महत्या करने. के सभी प्रयत्न विफल हो जाते हैं। तब पोटिलादेव तेतलिपुत्र की मोहदशा नष्ट करने हेतु जो उपाय करती है, उसका भावार्थ यह है
'तत्पश्चात् वह स्वर्णकार-पुत्री पोटिला छोटी-छोटी घंटिका से युक्त पंचवर्णीय वस्त्र पहन कर (देवी के रूप में) आकाश में (ज्ञातासूत्र के अनुसार न अति दूर और न अति निकट) खड़ी हो कर इस प्रकार बोली-'आयुष्मान् ! यह समझो कि तुम्हारे समक्ष गिरिशिखर और चट्टानों में विच्छिन्न होता हुआ प्रपात गिर रहा है, तथा पृथ्वीतल को कम्पित करता हुआ और वृक्षों को उखाड़ता हुआ, आकाश को फोड़ता हुआ, पिंडीभूत अन्धकार (तम के सदृश, प्रत्यक्ष महाकाल-सा शब्द करता हुआ विशालकाय गजराज सामने खड़ा है। तथा क्षणभर में दोनों
ओर प्रचण्ड धनुष से छूटे हुए, पृथ्वी के वक्ष में पूरे के पूरे प्रवेश करने वाले बाण बरस रहे हैं । जिनके पिछले हिस्से पर लगे हुए पंख ही दिखाई पड़ रहे हैं । आग की लपलपाती हुई सहस्रों लपटों से सारा वन प्रदेश जल रहा है। धू-धू करती हूई ज्वालाएँ उठ रही हैं और शीघ्र ही उदीयमान सूर्य के सदृश लाल-लाल व गूंजा के अर्द्धभाग की राशि की प्रभा के समान लाल अंगार-सा बना हुआ यह घर भी जल उठेगा। आयुष्मान् तेतलिपुत्र ! ऐसा होगा, तब हम कहां जाएँगे ?"
पोट्टिलादेव का यह कथन सुनकर तेतलिपुत्र संसार से भयभीत हो गया था, उसके उद्गार सुनिये
___ तत्पश्चात् अमात्य तेतलिपुत्र, मूसिकारपुत्री पोटिला (देवता) से इस प्रकार बोला-'पोट्टिले! यह तो तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि भयग्रस्त मनुष्य को प्रव्रज्या (साधुदीक्षा) ग्रहण करना उपयुक्त है। अभियुक्त व्यक्ति आत्मघाती कृत्य कर सकता है । मायी व्यक्ति गुप्तकृत्य करता है। देशाटन के लिए उत्कण्ठित मनुष्य देश भ्रमण करता है । पिपासित का पान