SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ अमर दीप परमात्मा, धर्म या गुरु के प्रति न तो उसकी श्रद्धा थी और न ही अन्धश्रद्धा थी। अपने प्यार के पात्र अंगजात पुत्र के अंगों को खण्डित करके राज्य के लिए अयोग्य सिद्ध करके राजा कनकरथ अन्यायी और अत्याचारी बना हुआ था। रानी चाहते हुए भी राजा के 'अन्याय अत्याचार के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकती थी। कनकरथ राजा परमात्मा, सद्गुरु या सद्धर्म के प्रति बिलकुल अश्रद्धालु था। जनता भी उसके इस अत्याचार से दुःखित थी। पद्मावती की श्रद्धा फलित हुई - पद्मावती रानी की देव, गुरु और धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। वह कनकरथ राजा के अत्याचारों को देख-देखकर कांप उठती थी। परमात्मा से प्रार्थना किया करती थी कि राजा को सद्बुद्धि प्राप्त हो । राजा को भी वह मधुर शब्दों में कहती थी कि क्या आप जानते हैं कि आपके पाप कर्मों का कितना बुरा परिणाम आएगा? थोड़े-से जीने के लिए आप इतनी रौद्र लीला क्यों करते हैं ? यद्यपि राजा सुनकर अनसुना कर देता था. तथापि मन ही मन उसे उसका पापकर्म कचोटता रहता था। रानी पद्मावती की तपस्या, परमात्मभक्ति और श्रद्धा के पुण्यबल से उसके शुभकर्मों का उदय हुआ। प्रकृति अनुकूल हुई। कनकरथ राजा का अमात्य तेतलिपुत्र था। उसने 'यथा-राजा तथा प्रजा' की कहावत के अनुसार एक स्वर्णकार की पुत्री पोट्टिला के रूप से मुग्ध होकर उसके साथ पणिग्रहण किया। पद्मावती रानी को राजा का अत्याचार असह्य हो उठा। वह . परमात्मा से श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करती रहती, इधर तप, व्रत, नियम, दान आदि धर्माचरण भी करती रही। सौभाग्य से उसकी मानसिक पीड़ा की प्रतिध्वनि अमात्य तेतलिपुत्र के हृदय में हुई । एक दिन रानी ने गुप्त रूप से अमात्य तेतलिपुत्र को बुलाया और अपनी मनोव्यथा कहकर उससे सहयोग माँगा। रानी के परम पुण्ययोग से अमात्य तेतलिपुत्र ने कहा"महारानी जी! आप कहें उस प्रकार से मैं सहयोग देने को तैयार हैं।" पद्मावती ने कहा-इस समय मैं गर्भवती हूँ। अगर गर्भस्थ बालक पुत्र हो तो उसे स्थानान्तरित करके दूसरे स्थान से पुत्रीरूप बालक लाकर रख दिया जाय तो कदाचित राजा उस बालिका पर दया करके उसका अंग-भंग न करे या नष्ट न करे तो यह राजकुमार सुरक्षित रहकर भविष्य में उत्तराधिकारी बने।" यों कहते-कहते पद्मावती रानी की आँखें गीली हो गईं। अमात्य तेतलिपुत्र ने कहा-"महारानी जी ! चिन्ता न करें । इस
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy