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________________ जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय १२७ मुक्त क्यों नहीं होती, क्योंकि पहले यह कहा गया है कि संवर और निर्जरा से शुभाशुभ कर्मक्षय होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अर्हतर्षि महाकाश्यप ने दसवीं गाथा में दिया है। उसका अशय यह है कि आत्मा प्रतिक्षण जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उन कर्मों से वे कर्म अनन्तगुणे हैं, जो अभी अनुदय अवस्था में पड़े हैं, उदय में आये नहीं है। अतः सम्पूर्ण कर्मों का क्षय न होने से मोक्ष होना सम्भव नहीं है। अर्हतर्षि का दूसरा अभिप्राय यह भी है कि आत्मा शुभ या अशुभ कर्मों का विपाकोदय प्राप्त करता है, अर्थात्-वे उदय में आते हैं; तो किसी न किसी निमित्त को लेकर ही आते हैं । अज्ञानी आत्मा शुभ निमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वष करता है । इसी राग और द्वोष के कारण वह आत्मा पुनः नये कर्मों का उपर्जन कर लेता है कि निर्जरित (क्षय) हुए कर्मों की अपेक्षा परिणाम में द्विगुणित या असंख्य गुणित भी हो सकते हैं। अज्ञानी आत्मा ऐसा मूढ़ कर्जदार है, जो कर्ज तो चुकाता है, किन्तु वह एक हजार चुकाता है और दस हजार का नया कर्ज फिर ले लेता है, ऐसी स्थिति में वह सर्व कर्मों से मुक्त कैसे हो सकता है ? निर्जरा से पूर्व संवर हो, तभी एक दिन सर्वकर्मविमुक्ति अतः होना यह चाहिए कि यदि कर्मों के ऋण से मुक्त होना है, तो नया ऋण लेना बंद कर दे और पुराना ऋण थोड़ा-थोड़ा चुकाये, तो भी एक दिन ऐसा आ सकता है, जब वह पूर्णतः ऋणमुक्त हो जाए। इसीलिए अर्हतर्षि ने निर्जरा से पूर्व संवर तत्त्व का निरूपण किया है । संवर के बिना की हुई निर्जरा का कोई मूल्य नहीं, क्योंकि वह तो अनादिकाल से चली आ रही है। अकेली निर्जरा या सभी निर्जराएँ भव-परम्परा को समाप्त करने में सहयोगी नहीं हो सकती। यही कारण है कि अर्हतर्षि ने तप के द्वारा होने वाली निर्जरा को महत्त्वपूर्ण बताया है, क्योंकि तप के द्वारा निर्जरित कर्म आत्मा से पुनः कभी चिपकते नहीं हैं। कर्मक्षय करने में रखी जाने वालो सावधानियां पहले यह बताया गया था कर्म चाहे कितने ही प्रचुर मात्रा में और प्रबल हों, किन्तु आत्मा उससे भी अधिक प्रबल और अनन्त शक्ति-सम्पन्न है, इसलिए उन्हें क्षय किये जा सकते हैं, शिथिल भी किये जा सकते हैं। अन्धकार कितना भी गहन और प्रचुर हो, सूर्य का थोड़ा-सा प्रकाश उसे छिन्न-भिन्न कर देता है । संवर और निर्जरा (चारित्र एवं तप) द्वारा कर्मक्षय होते हैं, परन्तु (१) उस समय भी निमित्त पर राग-द्वेष करना नहीं चाहिए
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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