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जीवन : एक संग्राम
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विचार नहीं करता कि मैं कौन हूँ? मैं अनन्तशक्ति का स्वामी आत्मा हूँ । जड़ पुद्गलों एवं कर्मपुद्गलों की शक्ति से आत्मा की शक्ति अनेक गुनी अधिक है।
जब तक यह ज्ञान परिपक्व और अनुभव संयुक्त न हो तब तक हम वृत्तियों, कषायों, इच्छाओं आदि के जाल को तोड़ नहीं सकेंगे । जब साधकयोद्धा शत्रु को समझ लेता है, तब उसे हटाने या मिटाने में प्राणों का बलिदान करने में पीछे नहीं हटता ।
आप चोर को देखते हैं तो उसका मुकाबला करने की वृत्ति क्यों जगती है ? इसलिए कि सम्पत्ति पर आपकी ममता है । इसी प्रकार क्षमा पर आपकी ममता हो तो आप कोध का मुकाबला करते । परन्तु यह तभी सम्भव होता, जब क्षमा को आप अपनी सम्पत्ति मानते । निर्लोभता को आप अपनी सम्पत्ति मानते तो लोभ को शत्रु मानकर मुकाबला करते । इसी प्रकार दया, समता, नम्रता, शील, सन्तोष आदि सद्गुणों को धन मानकर इन पर ममत्व हो तभी हिंसा, विषमताओं आदि दुर्गुणों-दुर्वृत्तियों पर विजय पा सकते ।
एक बात और है । दूसरे लोगों की अपेक्षा निर्ग्रन्थ महामुनि को प्रतिक्षण सावधान रहने और क्षमा, दया, समता आदि आत्म- सम्पत्ति को विजयी ard का अधिकाधिक प्रयत्न करना चाहिए। जैसे- किसी साधक को शरीर, सम्प्रदाय, पुस्तक, उपकरण आदि में से किसी भी सजीव या निर्जीव वस्तु पर मन में आसक्ति जागी, तो तुरन्त उसे सावधान होकर उस आसक्ति को समभाव से, निर्लोभता से दूर ठेल देनी चाहिए। तभी आत्मा के अनासक्ति गुण की विजय होगी ।
इसी प्रकार किसी गृहस्थ साधक को अपने धन, पुत्र, परिवार, या मकान पर मोह-ममत्व आया, उस समय वह अनित्यता का चिन्तन करके समत्वगुण की विजय करा सकता है ।
इस प्रकार साधक जीवन पर क्रोधादि का हमला होने पर क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्व ेष, कर्म आदि से एकदम नाता तोड़ ले, उन्हें मुह न लगाए । जैसे कोई कुत्ता रोटी की थाली पर झपटने आता है, उस समय अगर भोजन करने वाला उसे तुरन्त न भगाए तो वह बार-बार आएगा, रोटी भी खा जाएगा। इसी प्रकार जिस साधक पर क्रोधादि आक्रमण करने आता है, उस समय वह तुरन्त नहीं भगाए; तो वे क्रोधादि शत्रु बार-बार आकर साधनामय जीवन को चौपट कर देंगे ।