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पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
अर्थ बताने की भी आवश्यकता नहीं लगती । इन्द्र शब्द बोलते ही देवताओं के स्वामी, हाथ में वज्र धारण किये, अद्भुत बली एक दिव्य देव की छवि आँखों के सामने आ जाती है। जिस प्रकार इन्द्र देवों का अधिपति होता है, तीर्थंकरों के महोत्सवों में उन्हें साथ ले जाता है, उन पर अनुशासन करता है, उसी प्रकार गुरु शिष्य को अनुशासित करके योग्य स्थानों में स्थापित करते हैं ।
गुरुदेव आनन्द देने वाले हैं। गुरु का पद बहुत बड़ा है। उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपमा दी गई है। वे ज्ञान प्रदान करते हैं, आत्म-ध्यान की विधि बतलाते हैं। वे गुणों का दान करते हैं, शिष्य को सम्मान, मान के स्थान पर पहुँचाते हैं। जहाँ तक कि उनकी आज्ञा का पालन करने वाला मोक्ष के स्थान पर पहुँच जाता है।
गुरु आज्ञा सर्वोपरि - आज्ञा किसकी माननी चाहिए ? जो अवतारी पुरुष है, तीर्थंकर महापुरुष है, आगम व्यवहारी पुरुष या धर्मगुरु है । उनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण करना ही आज्ञा कहलाती है। गुरुजनों ने किसी भी कार्य को सम्पन्न करने का आदेश दिया तो चाहे वह शिष्य हो, पुत्र हो, बहू हो, या सेवक हो, बिना किसी प्रकार का राग, द्वेष, अज्ञान और मोह रखे आज्ञा का पालन करे ।
गुरु की आज्ञा का पालन ठीक उसी प्रकार होना चाहिए, जिस प्रकार क सेनापति की आज्ञा का पालन संग्राम में सिपाही करते हैं । सेनापति ने अगर आज्ञा दी- " कूच करो या प्रस्थान करो। " तो फिर सैनिक रुक नहीं सकते, चाहे आगे नदी, नाले, पर्वत या खड्डे कुछ ही क्यों न आएँ । भयंकर सर्दी, गर्मी या घनघोर वर्षा में भी वे आगे बढ़ते चले जाते हैं। जब सेनापति के द्वारा आक्रमण या मुठभेड़ की आज्ञा होती है तो फिर गोली लगेगी या शरीर छलनी हो जाएगा, मरेंगे या बचेंगे। इसकी जरा-सी भी परवाह किये बिना वफादार सिपाही दुश्मनों से जूझ जाते हैं। अपने मालिक सेनापति की आज्ञा का पालन करते हैं। इसी प्रकार शिष्य भी अपने गुरु भगवन्तों की, वीतराग के वचनों की आज्ञा का पालन करें।