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* प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा *
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१. अहिंसा
तीन करण और तीन योग से किसी भी जीव का घात नहीं करना अहिंसा कहलाती है। शास्त्रकार कहते हैं
“सुभो जो परिणामो सा अहिंसा।" । -निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा का शुभ परिणाम ही अहिंसा है। प्रत्येक धर्म ने अहिंसा को महत्त्व दिया है। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा अमृत है।
आचार्य हेमचन्द्र जी महाराज ‘योगशास्त्र' में अहिंसा का स्वरूप बताते हुए फरमा रहे हैं
“मातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणी।" .. -अहिंसा माता के तुल्य समस्त प्राणियों का हित करने वाली है।
“अहिंसैव हि संसार मरावमृत सारिणी।" -संसाररूपी मरुस्थल में अहिंसा ही एक अमृत का झरना है।
. “अहिंसा दुःख दावाग्नि प्रावृषेण्य घनावली।" - -अहिंसा दुःखरूपी दावानल को विनष्ट करने के लिए वर्षाकालीन मेघों की घनघोर घटा है।
“भव भ्रमिरुगात नामऽहिंसा परमौषधी।" -अहिंसा भवभ्रमणरूपी रोग से पीड़ितजनों के लिए उत्तम औषधि है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने ‘आवश्यकनियुक्ति' में कहा है
"तुंगं न मंदाराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि।
जह तह जयम्मि जाणसु धम्ममहिंसा समं नत्थि॥" अर्थात् सुमेरु से ऊँचा कोई पर्वत नहीं है और आकाश से विशाल दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उसी प्रकार अहिंसा के समान संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है। जैसे दही को मथकर मक्खन निकाला जाता है, उसी प्रकार जैनधर्म ने सब मतों का मन्थन करके धर्म का नवनीत निकाला है और वह है अहिंसा। ____ अहिंसा जीवन का एक सरस संगीत है। उसकी सुमधुर स्वर-लहरियाँ जन-जन के जीवन को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण प्राणी-जगत् को आनन्द विभोर बना देती हैं। अहिंसा जीवन सरसब्ज बनाने वाली एक महान् सरिता है। जब वह सरिता मन,