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* प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा *
* ३३ * -राग और द्वेष-दोनों कर्म के बीज हैं, चार गति चौरासी लाख जीव योनि में परिभ्रमण कराने व दिलवाने वाले हैं। भगवान महावीर ने फरमाया है-जीवन के लिए मधु मिश्रित जहर और खालिस जहर दोनों ही घातक हैं। इनमें भी राग और द्वेष की परम्परा बड़ी जबर्दस्त है। शास्त्रकार फरमाते हैं कि राग और द्वेष जीव के बड़े से बड़े शत्रु बनकर उसे अधोगति में ले जाते हैं। वस्तुतः समस्त दुःखों के भूल यह राग-द्वेष ही हैं। एक संस्कृताचार्य ने कहा
“राग-द्वेष वशीभूतो, जीवोऽनर्थ परम्पराम्।
कृत्वा निरर्थकं जन्म, गमयति यथा तथा॥" -राग और द्वेष के चंगुल में पड़ा जीव अनर्थों की परम्परा को प्राप्त करता है, उसके लिए अनर्थों का तांता लग जाता है। एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा, ज्यों-ज्यों आगे से आगे अनर्थ उत्पन्न होते ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में वह जैसे-तैसे अपना जीवन निरर्थक व्यतीत करता है, उसे मानव-जीवन पाने का कुछ भी फल नहीं मिलता। प्रश्न यह है कि राग-द्वेष का विनाश कैसे किया जा सकता है? जैसे दुश्मन को जीतने के लिए पहले सैनिक को ट्रेनिंग लेनी पड़ती है और तब आसानी से दुश्मन पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। इसी प्रकार राग-द्वेषरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए भी अनुभवी गुरुरूपी सेनापति के अधीन होकर ट्रेनिंग लेने की आवश्यकता है। शास्त्रकार कहते हैं-राग और द्वेष क्या हैं ? राग द्विमुखी है-राग के दो रूप हैं-माया और लोभ।' द्वेष भी द्विमुखी है-क्रोध और मान। राग और द्वेष दोनों मुकाबिले के हैं, दोनों की शक्ति प्रबल है। राग के हिमायती लोभ तथा कपट हैं, द्वेष के क्रोध एवं मान हैं। लोभ और कपट अपना अभिमत-वोट राग को देते हैं और क्रोध तथा मान अपना वोट द्वेष को देते हैं। जो राग-द्वेष को जीतने की कोशिश करते हैं, जो आत्म-विजेता हैं, वे जिन कहलाते हैं। भगवान महावीर ने कहा है-राग-द्वेष और मोह दोनों ही कर्म के बीज हैं। एक से राग होगा तो दूसरे से द्वेष तो स्वतः ही हो जाता है। द्वेष राग से ही पैदा होता है। जैसे दो बहनें हैं या अड़ोसी-पड़ोसी हैं। अगर एक का भी बच्चा दूसरे के बच्चे को चाँटा मार देता है, या कभी गाली दे देता है। अपने बच्चे के प्रति हर माँ को राग होता है, ममत्वभाव होता है। पड़ोसी या अपनी देवरानी या जेठानी का बच्चा जब उसके बच्चे को कभी दबा लेता है, तब वह अपने बच्चे के मोह के कारण पड़ोसी या अपनी बहन से लड़ने लग जाती है। यही राग-द्वेष कर्म के बीज हैं।
१. रागे दुविहे पण्णत्ते-माया य लोभे य।
-प्रज्ञापना पद २३/१