SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा दो प्रकार की बिजली होती है। एक अपनी ओर खींचती है और दूसरी झटका देकर आदमी को दूर फेंक देती है, किन्तु दोनों ही प्रकार की बिजलियाँ मारने वाली हैं, दोनों का ही दुष्परिणाम मनुष्य को भोगना पड़ता है, दोनों रूप घातक हैं। ऐसे ही राग और द्वेष भी होते हैं । राग अपनी ओर प्राणी को आकर्षित करता है या प्राणी उस ओर खींचता है तथा द्वेष के कारण आप व्यक्ति को दूर झटक देते हैं। प्रत्येक वस्तु में मनोज्ञता व अमनोज्ञता के दोनों पक्ष होते हैं। मनोज्ञ शब्द, गन्ध, रूप, रस और स्पर्श आदि हमें अपनी ओर खींचते हैं, हममें एक आकर्षण उत्पन्न करते हैं। वही दूसरी ओर अमनोज्ञ शब्दादि हममें विकर्षण का भाव उत्पन्न करते हैं। इनसे घृणा आदि का जन्म होता है । अपनी ओर खींचने वाली विद्युत् की भाँति रागभाव है एवं झटका देकर दूर फेंकने वाली विद्युत् की भाँति द्वेष है। ये दोनों ही परिस्थितियाँ आत्म-विकास के लिए जिज्ञासु व साधक पुरुष के लिए घातक होती हैं, इनसे दूर रहना व बचना ही हमारे लिए, सबके लिए श्रेयस्कर है। इसीलिए प्रभु ने ‘दशवैकालिकसूत्र' में फरमाया है “छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ।” - इस संसार में सुखी बनने का एकमात्र उपाय है - द्वेषभाव का छेदन करो एवं रागभाव को भी त्यागो। राग और द्वेष पिशाच के समान हैं, जो शनैः-शनैः मनुष्य को छलते हैं, धोखे में लेकर संहार कर देते हैं, अतः समझ-बूझकर भी हम इनके . धोखे में क्यों आवें ? आगे जैनाचार्य कहते हैं ३१ राग और द्वेष दोनों ही बेड़ियाँ हैं । द्वेष लोहे की बेड़ी है एवं राग सोने की है। दोनों ही बेड़ियाँ मनुष्य की पराधीनता का कारण हैं। लोहे की बेड़ी पहना दिये • जाने पर व्यक्ति अपमान अनुभव करता है, उसे लोगों के सन्मुख होने में भी शर्म महसूस होती है, वैसे ही सोने की बेड़ी पहनकर भी व्यक्ति प्रसन्न नहीं होता। दोनों से ही वह मुक्त होना चाहता है। ठीक वैसे ही राग और द्वेष को भी बेड़ियाँ मानकर आत्मा को इनसे पृथक् करना चाहिए । यह संसार तो एक महावृक्ष के तुल्य है, राग एवं द्वेष जिसकी जड़ें हैं, आठ कर्म उसकी शाखायें हैं, किम्पाक फल के कटु रस के समान इनका परिणाम भी कटु होता है। इसलिए सर्वप्रथम संसार - वृक्ष की जड़ों को सुखाओ, इन पहनी हुई बेड़ियों को काटो एवं राग-द्वेष संसाररूपी वृक्ष की जड़ों को सुखा दो, तभी सुखी बन सकोगे । राग और द्वेष ही कर्मों के बीज हैं, राग-द्वेष कर्म के बीज हैं, कर्म से मोह उत्पन्न होता है, मोह से जन्म-मृत्यु का चक्र है। जहाँ जन्म - मृत्यु है, इसके बीच में
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy