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पद्म-पुष्प की अमर सौरभ
" रागो य दोसो बिय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई मरणं वयंति ॥”
- राग और द्वेष- ये दोनों कर्म के बीज हैं, मोह से कर्म उत्पन्न होते हैं एवं कर्मों से जन्म-मरण का चक्र बढ़ता है। यही समस्त प्रकार के दुःखों का मूल है। यदि कर्म के बीजरूप राग और द्वेष को ही नष्ट कर दें तो शाखा प्रशाखारूप जन्म-मरण कहाँ रहेंगे ?
'नास्ति मूलं कुतः शाखा: ?' के अनुसार मूल के अभाव में शाखा प्रशाखा, फल-फूल आदि कहाँ ? अतः पहले मूल पर प्रहार करो, उसे सँभालो, यदि मूल नष्ट हो गया तो फिर शाश्वत सुखों में कोई बाधा नहीं । कहा भी है
" राग दोसे य दो पावे, पाव कम्म पवत्तणे । ”
अर्थात् राग और द्वेष दोनों ही पापकर्म के प्रवर्तक होते हैं। प्रत्येक प्राणी अनिष्टकारी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है तो इन दोनों के कारण। ये दोनों आत्मा के अतिप्रबल शत्रु हैं। सभी जीवों को और सदैव सुखों में लीन रहने वाले देवों को भी जो कायिक व मानसिक दुःख हैं वे राग और द्वेषरूप कषायों से उत्पन्न होते हैं एवं वीतरागी उन दुःखों का अंन्त कर लेता है। वस्तुतः राग और द्वेष चारित्र का विघात करते हैं एवं चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के प्रभाव से समस्त दुःखों की अनन्त परम्परा प्रारम्भ हो जाती है। ये दोनों हमारे अन्तः प्रविष्ट शत्रु हैं । बाह्य शत्रु तो अवसर देखकर अपना दाँव लगने पर ही प्रहार करते हैं एवं समय आने पर उनका प्रतिकार भी किया जा सकता है। किन्तु राग-द्वेष तो 'विषकुम्भं पयो मुखम् ' की भाँति मित्र- मुख शत्रु हैं, हमारे लिए आस्तीन के साँप सिद्ध हो रहे हैं, जो हमारा इतना अनिष्ट करते हैं। जितना शत्रु भी नहीं करता ।
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" न वि तं कुणई अमित्तो सुटु बि य विराहिओ समत्थोवि । जं दो वि अनिग्गहिया करंति रागो य दोसो य ॥ "
–यदि हम सावधान रहें तो समर्थ होते हुए भी शत्रु हमारा उतना अहित नहीं कर सकता, जितना अतिगृहीत दशा में रहे हुए राग और द्वेष करते हैं । अतः प्रहार करना है तो सर्वप्रथम इन आत्म-शत्रुओं पर करो, दमन करना है तो इनका करो, विजय प्राप्त करनी है तो इन पर विजय पाओ । राग और द्वेष पाँव में लगे हुए काँटे की भाँति हैं, जो सदैव साथ रहकर, मित्र बनकर, चरणों में झुककर भी हमें पीड़ित और दुःखी बनाते रहते हैं ।