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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
थक जाता है, रिटायर्ड हो जाता हैं, तब गधे का - सा जीवन समाप्त करके कुत्ते के जीवन में प्रवेश करता है। जैसे कुत्तां घर का पहरा देता है, वैसे ही फ्री मानव अब कुत्ते की भाँति एक• स्थान पर बैठा-बैठा घर का पहरा देता है। मनुष्य के बहू-बेटे उसके लिए दरवाजे में खाट बिछा देते हैं वहीं पर बैठकर वह घर की रखवाली करता है। कुत्ते का सा जीवन समाप्त करने के बाद वह बैल की श्रेणी में आ जाता है। जैसे बूढ़ा बैल जिसे दिखाई कम देता है, चला जाता नहीं, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ चुकी हैं। वैसे ही मनुष्य भी अपनी प्रत्येक इन्द्रियों से क्षीण हो चुका है। लेकिन भीतर जो तृष्णा जागी हुई है कि मैं बेटों के लिए यह कर जाऊँ, पोतों के लिए भी यह कर जाऊँ। यह भी बढ़िया-बढ़िया अच्छे-अच्छे माल खा जाऊँ, कपड़े पहन लूँ। अपनी विवेक-बुद्धि को तिलांजलि देकर जीवन को खाने-कमाने, मौज उड़ाने और अपने परिवार की मोहमाया में फँसकर बिता देता है। जीवन का सदुपयोग कैसे किया जाये ? इससे अनभिज्ञ रहता है। इसलिए मनुष्य जीवन, गर्दभ - जीवन, कुक्कुर - जीवन और वृषभ - जीवन, इन चार विभागों में विभक्त होकर अज्ञानी मनुष्य अपना जीवन समाप्त कर देता है।
अमृत-पुत्र
मनुष्य को उपनिषद् के ऋषियों ने अमृत-पुत्र कहा है । अमृत पुत्र का अभिप्राय है-जो परमात्मा है, अजर-अमर है, निर्विकार है, निरंजन- निराकार है, उसका पुत्र • अर्थात् उसका उत्तराधिकारी बेटा । मनुष्य को अमृत पुत्र कहने के पीछे रहस्य यही है कि संसार के समस्त प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो परमात्मा के निकट पहुँचकर स्वयं अमृतमय बन जाता है। दूसरे किसी प्राणी में मोक्ष पहुँचने या प्राप्त करने की योग्यता नहीं है । इसलिए अमृत- पुत्र अगर कोई हो सकता है तो मनुष्य ही हो सकता है।