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मानव-जीवन की सार्थकता *
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मनुष्य ज्ञान से या बातों से बड़ा नहीं होता, बड़प्पन तो चरित्र की पवित्रता से आता है। संसार उन्हीं सच्चरित्र मनुष्य, सद्गुणी और सदाचार - सम्पन्न व्यक्तियों को याद करता है, उन्हीं की गाथाएँ गाता है। जिनके जीवन की कोई न कोई घटना, प्रेरणा, कोई त्याग, बलिदान, सेवा और साहस की प्रकाश-किरण उसके जीवन में आलोक बन सकती है और जिनके भीतर मानवता का विराट् स्वरूप छिपा रहता है। गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में मनुष्य-भव की दुर्लभता दर्शाई
" आकर चारि लच्छ चौरासी । जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी ॥ फिरत सदा माया कर टेरा । काल धर्म सुभाव गुण घेरा ॥ कबहुक करि करुणा नर देही । देत ईस बिनु हेतुं सनेही ॥ साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ॥”
- यह जीवात्मा कर्मानुसार चार गति चौरासी लाख जीव योनि में भटकता रहता है। यह जीवात्मा माया से प्रेरित होकर, काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ इनके वश होकर संसार में चक्कर काटता है। असीम पुण्य उदय से, मनुष्य-भव की प्राप्ति होती है। यह मोक्ष का द्वार है, साधना का केन्द्र है। इसे पाकर जिसने अपना परलोक नहीं सुधारा, वह अन्त में हाथ मल-मलकर पश्चात्ताप करता है।
"दुर्लभ मानव भव मिला, कर एकत्व विचार । कैसे होगा अन्यथा, तेरा आत्मोद्धार ॥ बार-बार नहीं पाइये, मनुष्य-जन्म की मौज। मौज पाना चाहते, कीजे उसकी खोज ॥”
- इस संसार में मनुष्य-जन्म का मिलना दुर्लभ है। अय मानव ! आत्म-विकास के एक लक्ष्य पर चिन्तन कर और सोच-विचार कि जीवन का कल्याण कैसे होगा ? आत्मा का उद्धार कैसे होगा ? क्योंकि यह इंसान का चोला बार - बार मिलने वाला नहीं है। अरे ! यदि मनुष्य जन्म का लाभ उठाना है तो आत्मा में विराजित परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करो। जीवन के अन्दर आनन्द - मंगल का अखूट खजाना भरा है। तभी मानव जीवन सार्थक हो सकता है । जब हम अपने स्वरूप का दिग्दर्शन करेंगे और भीतर में छुपे उस गुण-भण्डार को पा सकेंगे।
मनुष्य का अर्थ : मननशील
अपने हित-अहित को समझकर काम करते हैं, इसलिए मनुष्यों का नाम मनुष्य है।