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* मानव-जीवन की सार्थकता *
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कल्याण हो सकता है। समाज में फैली पाशविकता, वैमनस्यता और अमानवीयता को दूर न किया गया तो भय है कि वर्तमान.विश्व नष्ट तो नहीं हो जायेगा। जहाँ मानव अपने साधनों का विकास कर रहा है, प्रकृति को अपने आधीन करने की चेष्टा में जुटा हुआ है, वहीं आज मनुष्य मानव-समाज का संहार करने, नष्ट कर डालने के लिए नये-नये रासायनिक शास्त्रों का निर्माण कर रहा है। अणु एवं परमाणु बमों का उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है। मनुष्य में अपने स्वार्थ के लिए सारे संसार तक को भस्म कर डालने तक की दुर्बुद्धि आ गई है। उसे मनुष्यत्व का ज्ञान नहीं है। पाशविक शक्ति का ही नाम शक्ति मान लिया गया है। क्योंकि हम क्या हैं ? क्यों हैं ? और हमें क्या चाहिए? क्या नहीं? हमारा कल्याण कैसे हो सकता है? हमारा लक्ष्य क्या है? इसका वर्तमान मनुष्य को ज्ञान ही नहीं है। क्योंकि उसने उन महापुरुषों के कथन को भुला दिया जिनका जीवन समस्त संसार के कल्याण के लिए रहा और जिनकी शिक्षा में मानव-जाति की अमूल्य निधि है। ___ संस्कृति मानव के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगीण चित्र है। वह मानव-जीवन की एक प्रेरक शक्ति है, जीवन की प्राणवायु है, जो चैतन्यभाव की साक्षी प्रदान करती है। संस्कृति का अर्थ है संस्कार-सम्पन्न जीवन। वह जीवन जीने की कला है, पद्धति है। संस्कृति का प्रयोजन मानव-जीवन है, मानव-जीवन को ही सुसंस्कृत बनाया जा सकता है। संस्कृति मानव-जीवन का ही एक प्रगतिशील तत्त्व है। संस्कृति और संस्कार हम कुछ भी क्यों न कहें, वह हमारे जीवन को उज्ज्वल बनाने की कला है। भगवान महावीर स्वामी ने फरमाया
“माणुस्सं खु सुदुल्लहं।" . -मनुष्य में मनुष्यता का जाग्रत होना सबसे दुर्लभ है। मनुष्यता से ही मानव-शरीर की महत्ता है। भारतीय संस्कृति में : मानव-जीवन
भारतीय संस्कृति शब्द का उच्चारण करते ही भारत देश की उच्च अध्यात्म संस्कृति का ऐसा सुरम्य चित्र सबके अन्तर्मानस में उभरने लगता है, जिसमें स्वार्थ की जगह सेवा, भोग की जगह त्याग के रंग खिले हुए हैं। वास्तव में भारतीय संस्कृति का अर्थ है प्रकाश के मार्ग में अनुष्ठान करने से प्राप्त होने वाली संस्कार-सम्पन्नता। "भारत" "भायानि प्रकाश में या प्रकाश के मार्ग में, “रत" = दत्तचित्त होकर अनुष्ठान करने से जो संस्कार-सम्पन्नता मानव के मन में जाग्रत होती है वह भारतीय संस्कृति है।