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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * |
देवाधिदेव भगवान महावीर स्वामी ने फरमाया है-“मनुष्य-शरीर पा लेने पर भी धर्म का श्रवण सुनना दुर्लभ है। जिसे सुनकर जीव तप, शान्ति और अहिंसा को अंगीकार करते हैं। सुनकर ही हमें ग्राह्य, अग्राह्य, पाप-पथ व पुण्य-पथ का ज्ञान होता है।'' 'भगवतीसूत्र' में कहा गया है
“सवणे नाणे य विन्नाणे, पच्चक्खाणे य संजमे।
अणण्हये तवे चेव वोदाणे, अकिरिया सिद्धि ॥" अर्थात् श्रवण (सत्संग होते ही धर्म-श्रवण) फिर ज्ञान, विज्ञान, फिर प्रत्याख्यान, तत्पश्चात् संयम, संयम से अनानव, फिर तप से व्यवदान (कर्मक्षय) और व्यवदान से अक्रिया (योग निरोध) और फिर सिद्धि (मुक्ति) होती है। .
साधु-साध्वियों की संगति में आने वाला सर्वप्रथम उनके उपदेश श्रवण करता है, उससे हिताहित, सत्यासत्य का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, फिर वह उस ज्ञान को यत्किंचित् यथाशक्ति आचरण में लाता है, जिससे उसे विज्ञान-अद्भुत ज्ञान हो जाता है। यह है कि सत्संग के क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते मोक्ष-प्राप्ति की प्रक्रिया।
वस्तुतः साधु-साध्वियों के पास जब कोई दर्शन वन्दन पर्युपासण करने जाता है, अर्थात् सत्संग करने जाता है, तब सर्वप्रथम उसे धर्मोपदेश श्रवण का लाभ होता है। धर्मोपदेश श्रवण से सत्संगी को वस्तु-तत्त्व का ज्ञान होता है। तत्पश्चात् उस जानकारी से ऊहापोह करते-करते हित-अहित, कर्तव्य-अकर्तव्य का अथवा हेय-ज्ञेय-उपादेय का विज्ञान (विवेक) होता है। हेयादि विवेक होने पर हेय अव्रत का अथवा हिंसा आदि अविरति का त्याग (प्रत्याख्यान) करता है। इस प्रकार के प्रत्याख्यान से १७ प्रकार का संयम होता है। संयम से अनायास ही हिंसादि आस्रवों का निरोध हो जाता है, अर्थात् नये कर्मों का आगमन रुक जाता है, संवर हो जाता है। फिर तो पुराने कर्मों का क्षय करना ही रहता है जो तप से होता है, उत्कट तप आदि से व्यवदान-सर्वकर्मों का क्षय हो जाता है। सर्वकर्मों का क्षय हो जाने से अक्रिया की स्थिति-शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है। शैलेशी अवस्था के बाद तो सिद्धि-मुक्ति निश्चित है। यह प्रक्रिया सत्संग से मोक्ष-प्राप्ति की है।
हाँ, तो आप श्रवण करें, क्योंकि श्रवण में ऐसी बातें आपको मिलेंगी, जो आपकी उलझी हुई गुत्थियों को एक मिनट में सुलझा देंगी। मनुष्यत्व के श्रवण में विकास का जितना महत्त्व है, आध्यात्मिक जीवन में भी श्रवण उतना ही महत्त्व रखता है।