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________________ * चौथा फल : सुपात्रदान * ११९ आप को तृप्त करो, पुष्ट करो, किसी को दो मत।" वृक्ष बोला- "नहीं, माँ ! मैं देता हूँ तभी फलता हूँ। मुझे दिये बिना शान्ति नहीं होती ।" वृक्ष ने अपने फल दिये, पत्ते दिये, पथिकों को छाया दी, पक्षियों को बसेरा दिया, वृक्ष पतझड़ में सूख रहा था तब भी उसकी यही कामना थी कि कोई आये और मेरी सूखी लकड़ियाँ ले जाकर अपना काम चलाये । वसन्त ऋतु आई । प्रकृति से वृक्ष को फूल, पत्ते, फल मिल गये। वृक्ष ने जितना चाहा उससे अधिक उसे मिला। वह हरा-भरा हो गया। गंगा नदी हिमालय से चली तो हिमालय ने उसे बहुत रोका कि "तुम यहीं रहो, आगे न बढ़ो, अपना जल यों ही न लुटाओ।" गंगा ने कहा- "मुझे लोक-कल्याण के लिये जाना ही पड़ेगा।" गंगा वहाँ से निकली और प्यासी धरती, सूखी खेती तथा व्याकुल जीव-जन्तुओं को शीतल जल लुटाती हुई आगे बढ़ी तो हिमालय का हृदय स्वतः द्रवित हो उठा। उसने जल उड़ेलना शुरू किया और गंगा जितनी गंगोत्री में थी गंगा - सागर में पहुँचते सौ गुनी बड़ी होकर जा मिली। इसलिए कबीरदास जी ने कहा भी है "चिड़िया चोंच भर ले गई, नदी न घटियो नीर । दान दियो धन न घटे, कह गये दास कबीर ॥" जो निरन्तर दान करता है वह निर्बाध प्राप्त भी करता है। आज का दिया हुआ कल हजार गुना होकर लौटता है । तिथि न गिनो, समय की प्रतीक्षा न करो। विश्वास रखो - आज दोगे तो कल तुम्हें कई गुना मिलेगा। लोक-मंगल के लिए जो अपनी क्षमताएँ, सम्पदाएँ दान करते हैं समय भले ही लगा हो परन्तु दान, त्याग और परोपकारार्थ उत्सर्ग ही जीवन को महान् और परिपूर्ण बनाता है। स्वामी 'विवेकानन्द जी ने एक बार कहा था - " अगर तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो तो देने को तैयार हो जाओ। देने में आनन्द है । पाने का एकमात्र उपाय यही है इस जगत् का यही नियम है जो नियम को जान लेता है उसे परिपूर्ण तृप्ति पाने की साधन-सामग्री मिलती है। यदि समुद्र अपना जल बादलों को न दे द्वारा अनंन्त जलराशि प्राप्त करते रहने की आशा छोड़नी होगी। जो नहीं करना चाहता उसके पेट में तनाव और दर्द बढ़ेगा। उसे नया सुस्वादु भीजन पाने का अवसर नहीं मिलेगा। कुआँ अपना जल न दे तो उसका पानी स जायेगा। इसलिये आगे कबीरदास जी ने कहा है “पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़ो दाम दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानी काम ॥ "
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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