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* चौथा फल : सुपात्रदान *
दिया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता
“दीन को देने से दया होत पुनि, मित्र को देने से प्रीति बढ़ाये, वैरी को देने से वैर रहे नहीं, शायर को दिए कीर्ति गाये। चाकर को दिये काम करे बहु, याचक को दिए आदर पावे,
साधु को देने से मोक्ष मिले सही, हाथ को दिए वृथा न जावे॥" धन का अभाव मनुष्य को दीन-हीन बना देता है; परन्तु विचारकों का कहना है कि जो व्यक्ति धनाभाव से ग्रस्त तो हो, परन्तु मन से उदार है, बुद्धि से उदार है, वह व्यक्ति धन का अभाव होते हुए भी वास्तव में दानी है। साधुओं के पास धन का बिलकुल अभाव होता है, तीर्थंकर तक भी अकिंचन और अपरिग्रही होते हैं, उनके पास में भौतिक धन का एक अंश भी नहीं होता परन्तु धन का अभाव होते हुए भी वे मन, बुद्धि और वाणी से उदार होते हैं। वे अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, बोधिदाता, धर्मदाता आदि होते हैं। वे अपनी
ओर से सर्वस्व लुटाते हैं। जो भी जिज्ञासु याचक उनके पास आता है, वह कुछ न कुछ पाता है। उन्हें सांसारिक प्राणियों को इस प्रकार का दान देकर आत्म-सन्तोष होता है, आत्म-तृप्ति होती है।
यह सत्य है कि जो मन का और बुद्धि का दरिद्र है, उसे अपने पास कुछ होते हुए भी दूसरों को देना, उसके अभाव की पूर्ति करना अखरता है। वह सोचता है इतनां धन कम हो जायेगा। मैं अकेला किस-किसको दूंगा? अभावग्रस्त तो बहुत हैं मैं तो एक ही हूँ। एक विचारक ने इसी शंका को उठाकर सुन्दर समाधान प्रस्तुत किया है
"एकोऽयं पृथिवीपतिः क्षितितले लक्षाधिका भिक्षुकाः। किं कस्मै वितरिष्यतीति किमहो एतद् वृथा चिन्त्यते॥
आस्ते किं प्रतियाचकं सुरतरुः, प्रत्यम्बुजं किं रविः।
किं वाऽस्ति प्रतियाचकं प्रतिलता गुल्मञ्च धाराधरः॥" अर्थात् अहो ! भूतल पर यह राजा तो एक ही है, लाख से अधिक भिक्षुक याचक हैं, यह अकेला किस-किसको क्या देगा? इस प्रकार की चिन्ता करना व्यर्थ है। क्या प्रत्येक याचक के लिए एक-एक कल्पवृक्ष है ? या प्रत्येक कमल को विकसित
१. . अभयदयाणं, चक्खुदयाणं
धम्मदयाणं..
-क्रस्ना (नमोत्थगां) गायकपत्र