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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * “कोहो य माणो य वहो य जेसिं, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च।
ते माहणा जाइ विज्जा विहीणा, ताई तु खेत्ताइं सु पावयाई॥" -जिनके जीवन में क्रोध, मान, हिंसा, असत्य और परिग्रह वृत्ति घर की हुई . है, वे जाति (चारित्र) और विद्या (ज्ञान) से विहीन तथोकथित ब्राह्मण या साधक पापयुक्त कुक्षेत्र है। अर्थात् जिनमें क्रोध, मान, माया, लोभ तीव्र है, हिंसादि अव्रत है, अज्ञान और मिथ्यात्व (मिथ्यादृष्टि) से युक्त है, वह बाहर से चाहे जितना आडम्बर रच ले, बढ़िया कपड़े पहन ले, तिलक-छापे लगाकर चाहे भक्त का स्वांग रच ले, चाहे वह दिन में १० बार मन्दिर या धर्मस्थान में क्यों न जाता हो, वह उपर्युक्त कहे अनुसार सुपात्र नहीं, बल्कि कुपात्र है।
“उत्कृष्ट पात्रमनगार गुणव्रताडढ्यम्, मध्यंव्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम्। निदर्शनं व्रत निकाय युतं कुपात्रम्, युग्मोज्झितं नरमपात्र मिदं तु विद्धि ॥"
-हम इस श्लोक द्वारा उत्कृष्ट पात्र, मध्यम पात्र और जघन्य पात्र, अपात्र और कुपात्र का पृथक्करण करके इस प्रश्न का समाधान करते हैं___ महाव्रती अनगार उत्कृष्ट पात्र है, अणुव्रती मध्यम पात्र है, व्रतरहित सम्यक्त्वी जघन्य पात्र है और सम्यग्दर्शनरहित व्रतों से युक्त व्यक्ति कुपात्र है तथा सम्यक्त्व और व्रत दोनों से रहित मनुष्य अपात्र है, यह समझना चाहिए।
उपर्युक्त हम पात्र, सुपात्र, कुपात्र, अपात्र, इन सब की चर्चा कर आए हैं और अब हम दान शब्द की चर्चा करेंगे। वैसे दान का क्षेत्र बड़ा विस्तृत रूप धारण किये हुए है। जैनधर्म में दान की व्याख्याएँ एवं लक्षण
दान का शाब्दिक अर्थ है-देना। जैनधर्म के मूर्धन्य विद्वान् एवं सूत्र-शैली में आद्य ग्रन्थ प्रणेता तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने दान शब्द का लक्षण किया है
“अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गोदानम्।" -अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।
इसी तत्त्वार्थसूत्र को केन्द्र में रखकर तत्त्वार्थभाष्य, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेनीयवृत्ति आदि में इसी सूत्र की व्याख्या की है, वह क्रमशः दी जा रही है
"स्वपरोपकारोऽनुग्रहः, अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानं वेदितव्यम्।"